बुधवार, 22 अप्रैल 2009

अपराजेय हो जाओगे

देखो,
दूब को।

कुचली जाती है,
रौंदी जाती है,
पर फिर भी बढती है,
आगे चढती है।
रेंग-रेंग कर,
मिट्टी को अपनी भुजाओ में,
देखो, कैसे जकड़ती है।

कड़ी दुपहरी सिखलाती इसको,
सहो सुर्य के प्रचण्ड धूप को।
फिर झूम-झूम कर वर्षा आती है,
इसको जल से तृप्त करती।
रग-रग में दौड़ जाता है,
जीवन द्रव्य।
होता है फिर,
विद्युत संचार।

फिर हुंकार भरती है,
अपरिमित आशाओं के साथ,
आगे बढते जाती है।

देखो,
निर्मम खुर के तले,
कैसे कुचली जाती है।
सहती सब कुछ,
भार टनों का,
जल जाती है,
सड़ जाती है,
जड़ उखाड़ फेकी जाती है।
फिर भी यह न थकती है,
जहां जाती है,
वहीं बढती है
देखो कभी न रुकती है।
हरी रंग है, हरी दिशायें,
अपराजेय है, दूब हरी है।

देखो,
जब चढती है दूब,
ईश्वर के चरणों में,
परम पवित्र कहलाती है।
बन सकते हो, बनो दूब तुम,
अगर दूब बन जाओगे,
अपराजेय हो जाओगे। 


(25 जनवरी 2000)

7 टिप्‍पणियां:

  1. प्रिय चंदन,
    बहुत अच्छी कविता की रचना की है!
    मेरी ओर से बधाई और शुभकामनाएँ -
    ऐसी अनेक कविताएँ रचने के लिए!
    अपने सोच को सकारात्मक बनाकर रचना करना
    बहुत अच्छी आदत होती है!

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  2. दूब में इतनी विशेषताएं हैं .. इसलिए शायद पूजा में इसकी भी जरूरत पडती है .. बहुत अच्‍छा लिखा है।

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  3. बन सकते हो, बनो दूब तुम,
    अगर दूब बन जाओगे,
    अपराजेय हो जाओगे।

    --बहुत खूब कहा!!!

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  4. दूब के जरिए आपने सुंदर तरीके से बहुत अच्छा संदेश दिया.. आभार

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  5. Though its truth of life cycle that the weaker has always been crushed and still they battling hard to establish themselves.....keeping the last hope with all diminshing eyes.

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  6. आप सभी लोगो का बहुत बहुत धन्यवाद.

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  7. bhot achha likhte han aap...i hope there is long long way to to.!!

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