शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

प्रेत

विक्षिप्त सा जीता हूँDSC01467

एक ठण्डी सी जिन्दगी

और मर जाता हूँ चुपचाप ।

होता है इतना

सघन अँधेरा

कि भटकती रहती है

मेरी आत्मा

तुम्हारी तलाश में

शुरू से अंत तक ।

13 टिप्‍पणियां:

  1. सहमत हूँ ...लेकिन शीर्षक प्रेत क्यूं ...
    और अंत यूं आया मेरे मन में ...
    अंत में जब पाता हूँ तुम्हे ..
    तो न मैं, मैं रह पाता हूँ ..
    और न तुम.....तुम ...

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  2. हे प्रभु !
    प्रेत की आत्मा मुक्त हो ...
    उसे ईष्ट - सिद्धि हो ...

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  3. बहुत सुंदर चंदन जी ,
    चंद पंक्तियां ..काफ़ी कुछ कह गईं ..लिखते रहें
    अजय कुमार झा

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  4. भावनात्मक रचना........
    और जरा उस प्रेत का कुछ नाम पता हो तो दे देना उससे पूछना है कि किसकी तलाश में भटक रही है प्रभु मिलन के लिए कि पिया मिलन के लिए.
    यदि प्रभु हैं तो ठीक है और अगर पिया से मिलने की बेकरारी है तो विश्वामित्र की मेनका वाली और तुलसीदास जी की सांप को रस्सी समझने वाली कहानी बतानी पड़ेगी नहीं तो बेचारा प्रेत जन्मों तक भटकता रहेगा.
    अंत में "माटी के पुतले तुझे कितना गुमाल है?
    कौन जग में किसका होता है मुफ्त में क्यों जन्म गंवाता है.....?"
    by the way nice creation.
    congrets....

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  5. सघन अँधेरा ऐसा की आत्मा को भी भटकना होता है
    किसी की तलाश में ...!!

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  6. अगर तूफ़ान में जिद है ... वह रुकेगा नही तो मुझे भी रोकने का नशा चढा है ।

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  7. बेचारी आत्मा। अजरता अमरता में कितना कष्ट है!

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  8. काफी अच्छा लिखा है आपने... इतना गहरा कैसे सोच लेते हैं चन्दन ?

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  9. Aap jee uthen ye dua karti hun!

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  10. भटकती रहती है

    मेरी आत्मा

    तुम्हारी तलाश में

    शुरू से अंत तक

    kya baat hai...

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