गुरुवार, 4 मार्च 2010

पतझड़

इतने वर्षों के बाद,

मिली तुम आज, इस तरह,

सोचा, खेलूँगा तुम्हारे संग होली,

लगा दूंगा, थोड़ा सा गुलाल,

तुम्हारे गालों पर,

कुछ रंग जा बसेंगे,

तुम्हारी माँग में ।

ढ़ूंढ़ा अपनी पोटली में,

पर रंग कहाँ बचे थे वहाँ ।

शायद पुराने बक्शे में हो,

पर सबकुछ तो,

साथ ले गयी थी तुम ।

बचा क्या रह गया था,

मेरे पास ।

हाँ याद आया,

तुम्हारे जाने के बाद,

अलमारी में पड़ी,

तुम्हारी सिन्दूर की डिब्बी,

फेंक आया था,

पास के तालाब में ।

आज तक सूखी नहीं यह तालाब,

बस मैं हीं पतझड़ हो गया । 

19 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर एहसास
    जिस दरख्त के पास तालाब है वह सूखा ही क्यों

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  2. आज तक सूखी नहीं यह तालाब,

    बस मैं हीं पतझड़ हो गया ।
    बहुत खूब । शुभकामनायें

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  3. पतझड़ हो गए ... ... .
    --
    कोई बात नहीं ... ... .
    --
    कारण -
    पतझड़ के बाद जरूर आता है वसंत!
    वसंत से प्रेरित होकर मुस्कराता है कंत!

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  4. भावों को इतनी सुंदरता से शब्दों में पिरोया है
    सुंदर रचना....

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  5. आज तक सूखी नहीं यह तालाब,

    बस मैं हीं पतझड़ हो गया ।

    आपने इन पन्क्तियो मे अपनी कवि मन की निहसहायता का गजब चित्रन किया है . आपकी सुंदर रचना मे गजब की प्रेम विरह को कवि की भावनाओ के द्वारा दिखलाया है . धन्यवाद चन्दन .

    जवाब देंहटाएं
  6. आज तक सूखी नहीं यह तालाब,

    बस मैं हीं पतझड़ हो गया ।

    आपने इन पन्क्तियो मे अपनी कवि मन की निहसहायता का गजब चित्रन किया है . आपकी सुंदर रचना मे गजब की प्रेम विरह को कवि की भावनाओ के द्वारा दिखलाया गया है . धन्यवाद चन्दन .

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  7. वाह बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना प्रस्तुत किया है आपने! दिल को छू गयी आपकी ये शानदार रचना! बधाई!

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  9. Holee ke rangon see khoobsoorat,
    Ek aur kavitaa !!
    Congratulations !!!

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  10. अरे वाह! रंग ढंग बदले नज़र आ रहे हैं इधर के.. बहुत खूब...

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  11. आज तक सूखी नहीं यह तालाब,.........( sookha )

    बस मैं हीं पतझड़ हो गया ।

    ahsaaso kee safal abhivykti.........

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