सोमवार, 8 मार्च 2010

एक स्तब्ध पेड़

दीदी “समता” की एक रचना-

 

एक स्तब्ध पेड़

पतझड़ सी भंगिमा लिये

एक स्तब्ध पेड़ ।

उसकी निस्तब्धता विच्छिन्न क्यों ?

शायद देखता है,

अपने साथियों को,

सावन आने की खुशी में,

खिलते हुऐ ,

हरियाली दिखाते हुऐ ।

मगर वह क्यों वंचित है,

इन खुशियों से ?

प्रकृति नहीं जानता,

भेद भाव का नियम ।

शायद जानता है कि

छिन्न होने वाले सारे

फेंक आये है अपनी कांति को,

अपने ही हाथों से ।

अविच्छिन्नता पसन्द है इसको,

चाहे अवांछित ही क्यों न हो,

पर इसका एहसास,

कहाँ है इसको ।

शायद यह खुश है कि

हमारे सफर की दूरी छोटी है ।

 

-(समता झा) 

14 टिप्‍पणियां:

  1. अविच्छिन्नता पसन्द है इसको,

    चाहे अवांछित ही क्यों न हो,

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  2. चाहे अवांछित ही क्यों न हो,

    पर इसका एहसास,

    कहाँ है इसको ।

    शायद यह खुश है कि

    हमारे सफर की दूरी छोटी है ।

    wow.. क्या खूब लिखा है दी ने...

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  3. रचना सही ढंग से कम्यूनिकेट नहीं कर पा रही है!
    यह भी हो सकता है कि बात मेरी समझ से परे है!

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  4. एक मर्म है कविता में कहीं गहरे प्राणों की झंकार मानों कुछ कहना चाहती है

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  5. पतझड़ की भंगिमा का पेड़ की निस्तब्धता के साथ साम्य! पेड़ की भी अपनी एक भाषा होती है जहाँ यह निस्तब्धता भी अभिव्यक्ति होती है....और यह सफ़र शायद पतझड़ से वसंत के बीच की दूरी व्यक्त करता होगा..शायद!!

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  6. बहुत ही सुन्दर और गहरे भाव के साथ आपने अद्भुत रचना लिखा है जो काबिले तारीफ़ है!

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  7. हैरानी स्वभाविक है वह क्यों वंचित है,पर इक दिन बसंत आएगी 4 sure..

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  8. bahut hi sundar rachna ,man ko chhu gayi .
    अपने ही हाथों से ।

    अविच्छिन्नता पसन्द है इसको,

    चाहे अवांछित ही क्यों न हो,

    पर इसका एहसास,

    कहाँ है इसको ।

    शायद यह खुश है कि

    हमारे सफर की दूरी छोटी है ।
    kitni sahi aur badi baat hai

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  9. प्रकृति नहीं जानता, ( jaantee )


    अविच्छिन्नता पसन्द है इसको,

    चाहे अवांछित ही क्यों न हो,
    ye panktiya jaan hai ise kavita kee .

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