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सोमवार, 8 मार्च 2010

एक स्तब्ध पेड़

दीदी “समता” की एक रचना-

 

एक स्तब्ध पेड़

पतझड़ सी भंगिमा लिये

एक स्तब्ध पेड़ ।

उसकी निस्तब्धता विच्छिन्न क्यों ?

शायद देखता है,

अपने साथियों को,

सावन आने की खुशी में,

खिलते हुऐ ,

हरियाली दिखाते हुऐ ।

मगर वह क्यों वंचित है,

इन खुशियों से ?

प्रकृति नहीं जानता,

भेद भाव का नियम ।

शायद जानता है कि

छिन्न होने वाले सारे

फेंक आये है अपनी कांति को,

अपने ही हाथों से ।

अविच्छिन्नता पसन्द है इसको,

चाहे अवांछित ही क्यों न हो,

पर इसका एहसास,

कहाँ है इसको ।

शायद यह खुश है कि

हमारे सफर की दूरी छोटी है ।

 

-(समता झा) 

गुरुवार, 4 मार्च 2010

पतझड़

इतने वर्षों के बाद,

मिली तुम आज, इस तरह,

सोचा, खेलूँगा तुम्हारे संग होली,

लगा दूंगा, थोड़ा सा गुलाल,

तुम्हारे गालों पर,

कुछ रंग जा बसेंगे,

तुम्हारी माँग में ।

ढ़ूंढ़ा अपनी पोटली में,

पर रंग कहाँ बचे थे वहाँ ।

शायद पुराने बक्शे में हो,

पर सबकुछ तो,

साथ ले गयी थी तुम ।

बचा क्या रह गया था,

मेरे पास ।

हाँ याद आया,

तुम्हारे जाने के बाद,

अलमारी में पड़ी,

तुम्हारी सिन्दूर की डिब्बी,

फेंक आया था,

पास के तालाब में ।

आज तक सूखी नहीं यह तालाब,

बस मैं हीं पतझड़ हो गया ।