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मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

क्योंकि मैं मजदूर हूँ

मैं मजदूर हूँ।

देखो न,
मेरे हाथ घिसे-पिटे है।

कहते है भाग्यवादी,
हस्तरेखायें बनाती है भाग्य को।
मेरे भाग्य कौन बनायेगा,
देखो न मिट गयी है रेखायें,
हाथों के ही रगड़ से।

मुझको कौन शराब देगा,
अपने ही दुख को,
शराब समझ पी लेता हूँ।

नशे में हूँ इस कदर,
न होश है इधर का,
न होश है उधर का।

कौन मुझको रंग देगा ?
अपने ही रक्त से,
सबको मैं रंगमय कर दूं।

केश मेरे उलझे हुए है,
कौन इसे सँवारेगा,
कब्र में पड़ हूँ मैं,
कौन मुझे नवजीवन देगा,
अपने ही स्वेदकणों से,
सृष्टी रचता हूँ मैं।

मित्र सच्चा कौन है मेरा,
साथ दिया सबने सुख में,
पुर्णिमा गयी,
देखो न अमावस्या आ गयी,
अब सबने विदा लिया।

कहते है बहुत लोग,
मजदूरों की दशा कुछ हुइ ठीक,
क्या खाख दशा हुइ ठीक,
मुझको पढाने के लिये,
उपक्रम रचते है,
"अ-आ" मैंने सीख लिया,
क्या हो गयी पढाई ?

मुझको इतना गड़ा दिया,
इस दलदल में,
कि निकलते निकलते,
वर्षों निकल जायेगें।

कौन मुझे निकालेगा ?
कौन मुझे निकालेगा ?
क्योंकि मै मजदूर हूँ ।

(19 दिसम्बर 1999)