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सोमवार, 15 मार्च 2010

क्योंकि मैं घबड़ा जाती हूँ तेरी नाराजगी से

दीदी समता की एक रचना-

बगैर आँसू के जो गुलशन हरा न हो,CACLSFCV
भला क्या वास्ता हो उस हरियाली से ।

वो आईना धुँधला ही पर जाये तो बेहतर हो
जो खौफ़ का समां बना दे अपनी सफ़ेदगी से ।

बहुत चाहा, बहुत समझा अपना जिसे,
कैसे नवाज दूँ उसे शब्द अजनबी से ।

तेरी फुरकत में नज़र न आये अपनी भी सूरत,
यही वज़ह है कि मैं बचती फिरती हूँ रौशनी से ।

अगर सँवरते हो सिर्फ़ मेरे लिये तो सँवरना छोड़ दो
क्योंकि मुझे तो मुहब्ब्त है बस तेरी सादगी से ।

जब भी मिलते हो तुम दर्द दिल बयां करते हो
मैं हीं तंग आ चुकी हूँ मुहब्बत की राजगी से ।

मेरी गुस्ताखी के बदले अपनों की तरह शिकायत कर दो,
क्योंकि मैं घबड़ा जाती हूँ तेरी नाराजगी से ।

-(समता झा)

सोमवार, 8 मार्च 2010

एक स्तब्ध पेड़

दीदी “समता” की एक रचना-

 

एक स्तब्ध पेड़

पतझड़ सी भंगिमा लिये

एक स्तब्ध पेड़ ।

उसकी निस्तब्धता विच्छिन्न क्यों ?

शायद देखता है,

अपने साथियों को,

सावन आने की खुशी में,

खिलते हुऐ ,

हरियाली दिखाते हुऐ ।

मगर वह क्यों वंचित है,

इन खुशियों से ?

प्रकृति नहीं जानता,

भेद भाव का नियम ।

शायद जानता है कि

छिन्न होने वाले सारे

फेंक आये है अपनी कांति को,

अपने ही हाथों से ।

अविच्छिन्नता पसन्द है इसको,

चाहे अवांछित ही क्यों न हो,

पर इसका एहसास,

कहाँ है इसको ।

शायद यह खुश है कि

हमारे सफर की दूरी छोटी है ।

 

-(समता झा) 

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

कुछ और सँवर गये होते

 

दीदी “समता” की एक रचना-

 

 

फूल

बीते दिनों को याद करते है हम,

वक्त कुछ कम न था,

ओह !!!  कुछ और सँवर गये होते ।

हँसी जो ठहाको में बदल जाती थी,

मगर थी सूखी और बेवजह की,

कुछ वजह होती और मुस्करा लिये होते,

कुछ और सँवर गये होते ।

राहें सुनसान थी मेरी,

मगर एहसास था सुहानेपन का,

काश कुछ समझ होती,

दो चार फूल खिला लिये होते,

कुछ और सँवर गये होते ।

चाँदनी भी निकलती थी अकसर,

हम अँधेरे से खुश थे,

काश, अँधेरे को चाँदनी बना लिये होते

कुछ और सँवर गये होते ।

जब कभी सोचा भी, वह स्वार्थ था, 

न परोपकार था, न आदर्श,

काश हम औरो को समर्पित हो गये होते,

कुछ और सँवर गये होते ।

 

(समता झा)

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

कुछ बाते इधर उधर की और “वह आदमी”

DSC03290 इस बार बहुत दिनों तक ब्लाग जगत से दूर रहा । पिछली पोस्ट डाले हुए करीब दो महिने हो चुके है । कारण ? कुछ तो इंटरनेट की समस्या, बीच में गांव भी गया था, और कुछ ब्लागजगत से दूर रहने की इच्छा । अगले महिने मार्च में, ब्लागजगत में आये हुए मुझे पूरे एक साल हो जायेंगे । यहाँ आकर कितना सफल रहा यह नहीं जानता या जानने की इच्छा नहीं, परन्तु एक आत्मसंतुष्टि का भाव मन में जरूर व्याप्त है । यहाँ आकर बहुत कुछ पाया है मैंने । अनेक सुजनो से मित्रता स्थापित हुई और मेरी हिंदी भी पहले से अच्छी हो गयी है । 8-9 वर्षों से हिन्दी लिखना बन्द हो चुका था परन्तु पढ़ना नहीं, हिन्दी मैं नियमित रूप से पढ़ता रहा हूँ । ब्लागजगत में आकर हिन्दीं लेखन करना बहुत हीं सु:खद अनुभव रहा है । बहुत सूक्ष्म और अल्प हीं सही पर अपने अंदर रचनात्मकता को पनपता हुआ महसूस कर रहा हूँ ।

अब कुछ बाते गाँव की । गाँव में हमारी एक रिश्ते की बहन है । “समता” दीदी । गणित से एम.एस.सी(M.Sc.) करने बाद अभी वह एल एन मिथिला विश्वविद्दालय, दरभंगा  से  पी.एच.डी.(Ph.D.) कर रहीं है । एक साधारण ग्रामीण परिवार से होकर, गाँव में रहकर (जहाँ सबसे निकटम महाविद्दालय घर से 20 किलोमीटर दूर है) पी.एच.डी. तक का सफर तय करना, वह भी एक लड़की के लिये किसी अति कष्टसाध्य तपस्या से कम नहीं, जबकी/जहाँ ज्यादातर परिस्थितीयाँ अनुकूल नहीं होती । समता दीदी को लिखने-पढ़ने का भी शौक है । इस बार जब गाँव गया था तो उनकी कुछ कवितायें लिखकर ले आया । आज पढ़िये उनकी कविता “वह आदमी”  ।

 

“वह आदमी”

सर पर सफेद बाल,

और

चेहरे पर झुर्रियां ।

लड़खड़ाते हुए कदम,

और

साँस की तेज रफ़्तार ।

उस आदमी को थी आवश्यकता,

दस रुपये की ।

मैं गलती से पूछ बैठी,

क्या है काम ?

हैरत से वह बोला-

“तुम अब तक हो अंजान ?”

मंत्री जी को लगा बुखार,

छा गये सारे रेडियो अखबार,

उनकी बुखार का चर्चा आम,

तो फिर,

मेरा बुखार क्यों गुमनाम ।

मैंने कहा-

गम की कोई बात नहीं है,

और न हीं कोई,

नयी बात हुई है ।

बड़े लोगो की बुखार है,

इसलिये थोड़ी प्रसिद्धी मिली है ।

 

-(समता झा)