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गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

यादों का पहाड़

 

DSC00955

पहाड़ से नीचे उतरते हुऐ

दूर तक दिखते

छोटे-छोटे घर

जहाँ कैद है अभी भी

कुछ भूली-बिसरी यादें ।

दूर तक फैला हुआ

कुहासे में लिपटा

गुमशुदा शहर

जहाँ से बच निकला था मैं कभी ।

घुमावदार सड़कों पर

फिसलती बसDSC03225

और इन सड़को से भी ज्यादा

टेढ़ी-मेढ़ी यह जिन्दगी ।

जिन्दगी की दीवार पर

कील की तरह

टंगी कुछ यादें ।

सदियां बीत जाये

भूलने में

कुछ ऐसी यादें ।DSC02881

और तुम्हारे काँधे की गर्म खुशबू

भुला नहीं पाया मैं आजतक ।

अब पहाड़ों पर

नहीं जाता मैं ।

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

टोपीयां

 

 

 

बहुत हीं शांत, सौम्य और सज्जन

पुरुष थे वे लोग ।

और

पहने हुए थे

सच से भी ज्यादा

साफ़ और स्वच्छ कपड़े ।

लोगों को पहनाया करते थे

अपनी सफ़ेद टोपीयां ।

लोग आज भी

टोपीयां पहने हुए

पाये जाते है ।

 

 

 

                           (तस्वीर http://ngodin.livejournal.com से ली गयी है)

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

परिवर्तन














रोका था,
तुमनें मुझे

जब मैनें,
कोशिश की थी,
रोने की

कहा था तुमनें,
मत बर्बाद करो,
इन आँसुओ को,
मेरे लिये

बचाकर भी नहीं,
रख पाया था,
मैनें इन्हें

खर्च कर दिये थे,
सारे के सारे

अब,
जबकी तुम नहीं हो,
नहीं भींग पाती है,
मेरी आखें

बहुत ,
कोशिश करने के,
बाद भी




(चित्र साभार- अरुण कुमार)



रविवार, 9 अगस्त 2009

मन


















ये मन बड़ा मतवाला है,
न होश में आनेवाला है
कभी इस डगर, कभी उस डगर,
रमता रहता है नगर - नगर


गाँवो की गलियों में दौड़े,
जैसे मस्त पवन मे भ्रमरें
फूल - फूल पर फिरता - फिरता,
मधुरस का पान करता


मन का दर्द रखो न मन में,
एक दिन विष बन जायेगा
मन की बात निकालो मन से,
कुछ कष्ट दूर हो जायेगा


मन क्या सोचे, मन क्या कर ले,
मन बहका ले, मन बहला ले
मन चाहे तो मीत बना ले ,
छोटे - बड़ो का भेद मिटा ले


मन , मन को मोह ले,
मन , मन ही रो ले
मन तड़पा दे , मन हर्षा दे ,
मन जीवन के गीत सुना दे


मन के बस में न होना रे,
मन को बस में कर लेना रे
मन, मष्तिस्क में जलता रहता है,
तब शिव का भष्म बनता है




(14 नवम्बर 1999)


बुधवार, 5 अगस्त 2009

जीवन-मृत्यु





एक जिज्ञासा,
मन में उभरी,
जीवन क्या है ?
प्रत्युत्तर मिला-
मृत्यु की ओर अग्रसर,
एक अविराम पथ ।

परन्तु,
समय ,
न चाहते हुए भी,
उस यात्री को,
आगे बढ़ने के लिये,
विवश करता है ।

कितना विवश ?
कितना विक्षिप्त ?
कितना क्षुब्ध ?
है मानव,
है मानव का यह समाज ।

डरता है मनुष्य,
मृत्यु के वरण से,
मृत्यु कठोर है,
असुन्दर है ।
पर,
यही तो शाश्वत है ।

मृत्यु जीवन का अन्त नहीं,
जीवन की है यह पूर्णता ।

जीवन मृत्यु के द्वन्द में,
किसने किसको पछाड़ा,
एक प्रश्न,
जीवन या मृत्यु,
या फिर समय ?


गुरुवार, 30 जुलाई 2009

मेरी डायरी के कुछ पन्ने



शनिवार को मैं गांव से दरभंगा आ गया यहां आकर पता चला कि आसनसोल से मेरा मनीआर्डर आया हुआ है मैं डाकघर जाने ही वाला था कि याद आया, आज तो रविवार है अतः डाकघर बन्द होगा दूसरे दिन सुबह दस बजे डाकघर गया

टेबल पर बैठे एक सज्जन पत्र छांट रहे थे
उनसे
मैंने कहा, " कल मेरा मनिआर्डर आया था और मैं छात्रावास मे नहीं था"
"कतऽ रहई छी ?" ( कहां रहते हैं आप?) उनहोंने मैथिली में पूछा
मैंने कहा, "आइन्सटीन छात्रावास में"
"नाम की भेल ?,"(नाम क्या है?) पत्र छांटते हुए उन्होनें पूछा
"चन्दन कुमार झा"मैंने कहा

उन्होंने सामने कुछ दूर पर खड़े एक आदमी की ओर दिखाते हुए कहा-

"वो उन्हे देख रहे है न, जो टीका- चन्दन किये हुये है, उनके पास जाइये और अपना नाम कहियेगा तो कल आपको आपका मनिआर्डर मिल जायेगा "

तब मुझे पता चला की मेरा मनिआर्डर डिपोजिट में रख दिया गया है मैं समझ गया कि अब मुझे परेशान होना ही पड़ेगा तभी चन्दन-टीकाधारी पुरुष अपने स्थान से दूसरे स्थान पर चले गये. मैं उन्हें पीछे से देख ही रहा था, और जल्दी से उनके पास गया वे कुर्सी पर बैठ गये, सामने टेबल पर काफी सामान बिखरा हुआ था वैसे वे उतने व्यस्त नहीं लग रहे थे

मैनें
उनसे कहा, "मेरा नाम चन्दन कुमार झा है, कल मेरा मनिआर्डर आया था, उस समय मैं हास्टल में नहीं था, सो पता चला है कि उसे डिपोजिट में रख दिया गया है, अतः क्या मुझे मेरा मनीआर्डर मिल सकता है "

"अवश्य मिलेगा", उन्होंने पूछा,"आपको किसने भेजा है ?"

मैनें सामने दिखलाते हुए कहा, "वो जो किनारे से बैठे हुये है, लाल रंग का कुर्ता पहने हुए "

उन्होंने अपना सिर घुमा लिया और अपने कार्य में व्यस्त हो गये
मैं थोड़ा झुंझुला उठा

मैनें पुनः प्रश्न किया, "क्या मुझे कल फिर आना पड़ेगा ?"
उत्तर स्पष्ट था, "आप क्यों आएगे , डाकिया पहुचां देगा"
मैनें पूछा, "क्या आज नहीं मिल सकता ?"
उत्तर आया,"एकदम नहीं"

मैं कुछ परेशान सा हो गया, पर क्या कर सकता था, अतः वापस छात्रावास लौट आयादिन के १२ बज रहे थेमैनें सोचा शायद डाकिया मनिआर्डर लेकर आज ही आ जाये अतः समाचार पत्र लेकर छत पर जाने वाली सीढी पर बैठ गया, जहां से सामने गुजरने वाली सड़क पर सीधी नजर रखी जा सके बहुत देर तक वहां बैठा रहा, अन्त में थककर अपने कमरे में आ गया कमरे की खिड़की से भी सामने वाली सड़क नजर आती थी अतः खिड़की से भी अवलोकन का कार्यक्रम चलता रहा कि अचानक डाकिया आता दिखाइ पड़ा मैं भागकर नीचे गया, पर सारी आशा निराशा में बदल गयी डाकिया ने मेरा मनिआर्डर नहीं लाया था

चुपचाप खाना खाने चला गया

(२४ सितम्बर२००१)


बुधवार, 6 मई 2009

कर्म का महत्व

रुको नहीं, थको नहीं,
रुकना नहीं कर्म है,
थकना नहीं धर्म है

चलते रहो चलते रहो,
चलना हीं तो कर्म है



रवि रुक जाये अगर,
प्रकृति में हो जाये प्रलय

चाहते हो अगर जीतना तो,
समझो कर्म के महत्व को



कर्म हीं है जिन्दगी,
मानवता कर्म है,
मातृत्व हीं तो कर्म है,
भक्तित्व हीं तो कर्म है



कर्म से डरो नहीं,
कर्म से भागो नहीं,
कर्म तुम्हें पहुँचायेगा,
परम लक्ष्य की सीमा तक



सत्य है असत्य है,
सत्य को चुन लो तुम,
सत्य को थामे रहो,
कर्म हीं पहुँचायेगा तुम्हें,
सत्य की राह पर



अराधना हीं कर्म है,
साधना हीं कर्म है,
पवित्र मन, सत्य वचन,
सच्ची श्रद्धा,हृदय से निष्ठा,
कर्म का मूलमंत्र है


कर्म देश भक्ति है,
कर्म हीं तो शक्ति है,
कर्म का भविष्य है,
निश्वार्थ भाव से,
कर्म करो,कर्म करो


(20 जुलाई 1999)




बुधवार, 15 अप्रैल 2009

प्रश्न और अर्थ

कुसुम को किसने कहा खिलो,
पवन को किसने कहा चलो,
अग्नि को किसने कहा जलो।


जीवन में निराश क्यों,
मृत्यु का उपहास क्यों,
प्रेम की तलाश क्यों ।


समय क्यों रुकता नहीं,
अहं क्यों झुकता नहीं,
विचार क्यों रुकता नहीं।


भक्ति में इच्छा कैसी,
शक्ती की समिक्षा कैसी,
विश्वास की परिक्षा कैसी।


रंग क्यों अनेक है,
जीवन क्यों एक है।


प्रश्न का हल नहीं,
अर्थ है सभी वही।

गुरुवार, 26 मार्च 2009

अहं का विसर्जन

नमस्कार !!!!!!!!!!!!!!!
आज एक छोटी सी कहानी सुनाता हूं।

शून्यवादी नागार्जुन जब चीन पहुँचे तो वहाँ के सम्राट ने उनका भव्य स्वागत करने के बाद उनसे कहा: " मैं अहंकार से बुरी तरह पीड़ित हूँ, कृप्या कुछ करें।नागार्जुन ने कहा:"आधी रात गये अतिथि गृह में आना और हां अकेले मत आना अहंकार को भी साथ लिये आना" . नियम समयपर सम्राट अतिथि गृह के द्वार पर खड़ा था। नागार्जुन बोले, "अकेले आये हो, अहंकार को साथ नहीं लाये ?। सम्राट ने कहा, "वह तो मेरे भीतर बैठा है"। नागर्जुन बोले, "ऐसा ? तब उसे खोजो भीतर किस कोने में छिपा बैठा है । सम्राट को लगा यह आदमी तो पागल है, फिर भी वह चुप होकर बैठा गया। दो घड़ी बाद नागार्जुन ने पूछा, "मिला ?" । "कोशिश कर रहा हूं", सम्राट ने कहा । प्रत्यूंषवेला हो रही थी-एकाएक सम्राट जोर से हँसा- बोला "अब मैं समझ गया। आपका शून्यवाद " मैंपन" की ठसक से छुटकारे का दूसरा नाम है ।




साभार: दैनिक हिन्दुस्तान