मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

कि बन जाये आत्मा

 

बहना नदी की तरह

निर्विरोध और तीव्र वेग लिये

कि बन जाये आत्मा

एक नदी चंचल

और मिटा दे अपना अस्तित्व

मिलकर अपने इष्ट से ।

खिलना पुष्प की तरह

महक और सौंदर्य लिये

कि बन जाये आत्मा

एक पुष्प गुच्छ

और कर दे अपना जीवन समर्पित

अपने प्रिय के आंचल में ।

चलना पवन की तरह

वेग और उन्मांद लिये

कि बन जाये आत्मा

एक हवा का झोंखा

और टकराकर किसी ऊँचे पर्वत से

झर जाये झर-झर निर्झर ।

होना विशाल महासागर की तरह

लहरें और कोलाहल लिये

कि बन जाये आत्मा

एक सागर अथाह

और लाख हाहाकार लिये भी

अंदर से हो शांत और गहरा ।

तपना सूरज की तरह

लावा और उष्मा लिये

कि बन जाये आत्मा

एक सूरज चमकदार

और स्वयं जलते हुये भी अनवरत

भर दे जीवन कण कण में ।

(भैया रावेंद्रकुमार रवि द्वारा दिये गये सुझाव के अनुसार उपरोक्त कविता को सम्पादित कर पुनः प्रकाशित किया  गया है )

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

ख़्वाब, परिंदा और कहानी

 

(केरल में पालघाट दर्रा जो केरल को तमिलनाड़ू तथा कर्नाटक से जोडता हैं और सुन्दर पहाड़ी का दृश्य)

 

 

 

 

 

 

आधे अधूरे ख़्वाब

और यह सिमटता जहान

अपने हीं अन्दर

बार बार

खुद को

ढूँढता रहा हूँ मैं ।

 

**********************************

 

वक्त का परिंदा

और यह छोटी सी जिंदगी

न जाने कौन सी अँधेरी गली में

बार बार

खुद को

खोता रहा हूँ मैं ।

 

**********************************

 

अधूरी यह कहानी

और अनकहे शब्द कितने

अपनी ही राह का काँटा

बार बार

खुद को 

बनाता रहा हूँ मैं ।

शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

दीपावली

मैं तम से भरा अज्ञानी मां

एक दीप जला दो जीवन में मां

मन के कपाट मेरे बन्द है मां

मेरा मार्ग प्रकाशित कर दो मां ।

 

एक ज्योति जला दो जीवन में

फैला दो उजाला जीवन में

है सघन अंधेरा जीवन में

कुछ रंग भर दो इस जीवन में ।

खिले फूल कमल सा सबका जीवन

महकें फूलों सा यह मन उपवन

फैले दूर दूर तक ज्ञान की हरियाली 

भर दे प्रकाश जीवन में सबके दीपावली ।

 

 

(आप सभी को दीपावली पर्व की अनेको अनेक शुभकामनायें  !!!)

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

ऐसा क्यों होता है ?

 

कम नहीं था

वह प्रेम

जो दिया मैंने तुमको ।

माना कि

तुम्हारी कुछ मजबूरियाँ थी ।

पर

चाहती थी मैं भी

सबकुछ बांटना

तुम्हारा दुःख- सुख

और तुम्हारा द्वन्द ।

मानते हो  न तुम

कि

अधिकार था यह मेरा ।

पर तुम्हारा अहम

और तुम्हारी मजबूरी ।

तुम्हारी मजबूरियों से लदे

कंधे पर अपना सिर

रख न पायी मैं

रो न पायी मैं ।

मेरे गर्म आंसू

पिघला न पाये

तुम्हारे जमें हुए खून को ।

शायद यह तुम्हारी महानता थी

या कुछ और ।

अभिशप्त है मेरा जीवन

तुम्हारे इस झूठ को

जीने के लिये ।

माना कि

तुम्हारी परिधि से टूटकर

मै पूर्ण न हो पायी

पर यह सोचो

कितने अकेले

कितने विकल हो

तुम भी

आज तक ।

रह गयी अधूरी मैं

और अधूरे तुम भी

आज तक ।

रविवार, 11 अक्तूबर 2009

मेरे होने का मतलब

 

जिन्दगी की प्रयोगशाला में  बहुत सारे प्रयोग चलते रहते हैं । कुछ मेरे अंदर  चल रहे है । कुछ आपके अंदर भी चल रहे होंगे । देखते है ये प्रयोग सफल होते है की नहीं । वैसे  इन प्रयोगों के बिना जीवन का बहुत अर्थ भी नहीं । सफलता और असफलता तो आनी जानी रहती है । आत्मा तो बस चलने में है, निर्विकार, निर्भीक और निर्विरोध !!!!

(गाजर के फूल)

रात सिमटती गयी,

दिन निकलता गया,

रंग भरते गये,

मैं निखरता गया ।

संग तेरा जो पाया,

तो लौ जल गयी,

रौशनी मेरे अंदर,

भरती ही गयी ।

 

तुम हीं तुम हो यहाँ 

मैं कहीं भी नहीं,

मेरे होने का मतलब,

तुम ही तो नहीं ।