न देखा हुआ सच,
किनारे से किनारे तक,
दूर तक फ़ैला हुआ।
रेत की तरह,
शुष्क।
तपती धूप में जलता हुआ।
किसे पता है यह सच,
जो किसी को नही पता।
मुझे पता है।
मुझे मालूम है।
दूर तक जाना है मुझे,
इन प्रतिबिंबो पर पैर रखते हुए।
क्या टिके रहेगे मेरे पांव,
इन आधारो पर ।
क्योकि फ़ैल रहा है यह,
रेगिस्तान।
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रविवार, 10 मई 2009
बुधवार, 6 मई 2009
कर्म का महत्व
रुको नहीं, थको नहीं,
रुकना नहीं कर्म है,
थकना नहीं धर्म है।
चलते रहो चलते रहो,
चलना हीं तो कर्म है।
रवि रुक जाये अगर,
प्रकृति में हो जाये प्रलय।
चाहते हो अगर जीतना तो,
समझो कर्म के महत्व को।
कर्म हीं है जिन्दगी,
मानवता कर्म है,
मातृत्व हीं तो कर्म है,
भक्तित्व हीं तो कर्म है।
कर्म से डरो नहीं,
कर्म से भागो नहीं,
कर्म तुम्हें पहुँचायेगा,
परम लक्ष्य की सीमा तक।
सत्य है असत्य है,
सत्य को चुन लो तुम,
सत्य को थामे रहो,
कर्म हीं पहुँचायेगा तुम्हें,
सत्य की राह पर।
अराधना हीं कर्म है,
साधना हीं कर्म है,
पवित्र मन, सत्य वचन,
सच्ची श्रद्धा,हृदय से निष्ठा,
कर्म का मूलमंत्र है।
कर्म देश भक्ति है,
कर्म हीं तो शक्ति है,
कर्म का भविष्य है,
निश्वार्थ भाव से,
कर्म करो,कर्म करो।
(20 जुलाई 1999)
रुकना नहीं कर्म है,
थकना नहीं धर्म है।
चलते रहो चलते रहो,
चलना हीं तो कर्म है।
रवि रुक जाये अगर,
प्रकृति में हो जाये प्रलय।
चाहते हो अगर जीतना तो,
समझो कर्म के महत्व को।
कर्म हीं है जिन्दगी,
मानवता कर्म है,
मातृत्व हीं तो कर्म है,
भक्तित्व हीं तो कर्म है।
कर्म से डरो नहीं,
कर्म से भागो नहीं,
कर्म तुम्हें पहुँचायेगा,
परम लक्ष्य की सीमा तक।
सत्य है असत्य है,
सत्य को चुन लो तुम,
सत्य को थामे रहो,
कर्म हीं पहुँचायेगा तुम्हें,
सत्य की राह पर।
अराधना हीं कर्म है,
साधना हीं कर्म है,
पवित्र मन, सत्य वचन,
सच्ची श्रद्धा,हृदय से निष्ठा,
कर्म का मूलमंत्र है।
कर्म देश भक्ति है,
कर्म हीं तो शक्ति है,
कर्म का भविष्य है,
निश्वार्थ भाव से,
कर्म करो,कर्म करो।
(20 जुलाई 1999)
मैं भूल चुका हूँ
जब मैं,
पटना में रहता था,
तब मुझे,
रोटीयाँ स्वंय ही बनानी पड़ती थी,
ये रोटीयाँ,
कभी गोल बन जाती थी,
और कभी टेढी-मेढी,
पर मुझे पैसे नहीं देने पड़ते थे,
अब मुझे,
रोटीयाँ नहीं बनानी पड़ती है,
पर मुझे पैसे देने पड़ते है.
चाहे रोटीयाँ गोल हो,
चाहे टेढी,
मैं पैसे चुकाता हूँ,
क्योंकी कुछ बाते पीछे रह गयी है।
अब मैं,
रोटीयाँ बनाना भूल चुका हूँ,
और पता नहीं,
और क्या क्या भूलने वाला हूँ।
पटना में रहता था,
तब मुझे,
रोटीयाँ स्वंय ही बनानी पड़ती थी,
ये रोटीयाँ,
कभी गोल बन जाती थी,
और कभी टेढी-मेढी,
पर मुझे पैसे नहीं देने पड़ते थे,
अब मुझे,
रोटीयाँ नहीं बनानी पड़ती है,
पर मुझे पैसे देने पड़ते है.
चाहे रोटीयाँ गोल हो,
चाहे टेढी,
मैं पैसे चुकाता हूँ,
क्योंकी कुछ बाते पीछे रह गयी है।
अब मैं,
रोटीयाँ बनाना भूल चुका हूँ,
और पता नहीं,
और क्या क्या भूलने वाला हूँ।
बुधवार, 15 अप्रैल 2009
प्रश्न और अर्थ
कुसुम को किसने कहा खिलो,
पवन को किसने कहा चलो,
अग्नि को किसने कहा जलो।
जीवन में निराश क्यों,
मृत्यु का उपहास क्यों,
प्रेम की तलाश क्यों ।
समय क्यों रुकता नहीं,
अहं क्यों झुकता नहीं,
विचार क्यों रुकता नहीं।
भक्ति में इच्छा कैसी,
शक्ती की समिक्षा कैसी,
विश्वास की परिक्षा कैसी।
रंग क्यों अनेक है,
जीवन क्यों एक है।
प्रश्न का हल नहीं,
अर्थ है सभी वही।
सोमवार, 13 अप्रैल 2009
उठ मानव समय आ गया
उठ मानव समय आ गया
कब तक रहेगा सोता तू ?
उठ अब।
तोड़ पत्थर, सर नहीं।
तोड़ बन्धन, मन नहीं।
अशांत बैठा बहुत दिनों तक,
अब बजा डंका शांति का।
अंधकार फैला है चारो ओर,
दीप जला, प्रकाश ला।
कहां से लायेगा तू दीप,
कहां मिलेगी बाती तेल।
ये शरीर ही दीपक है,
मन है इसकी बाती,
हृदय है तेल,
जला दे दीपक।
बुझा न सके इसे,
कोइ फिर कभी।
कहां कहां भटकेगा तू?
मत भटक, यहीं अटक।
जला दे उस जड़ को,
जो फल न दे सके।
तोड़ दे उन हाथो को,
जो जल न दे सके।
फोड़ दे उन आंखो को,
जो किसी का सुख न देख सके।
विष भर दे उनमें,
जो सताये जाते है।
चण्डी बना दे उनको ,
जो जलाये जाते है।
काट फेंक उस हृदय को,
जो दया न दे सके।
बन्द कर दे उन कानों को,
जो किसी की सुन न सके।
तुझे अब खांसना नहीं,
हुँकार भरना है।
तुझे अब डरना नहीं,
काल बनना है।
उनके लिये,
जो चूसते रक्त गरीबों का।
उस रक्त पिपासु के,
पंख काट दे,
आंखे फोर दे।
दीमक लगा उन जड़ो में,
जो तुझसे उखड़ न सके।
उठ मानव समय आ गया।
(30 नवम्बर 1999)
सोमवार, 30 मार्च 2009
मेरी अभिलाषा
अभिलाषा है ऊपर उठने की मुझे
पर इतना नहीं कि झुक न सकूं
इतना न झुकूं कि उठ न सकूं।
उठने के नशे में कुचल दूं
उस लता को
जो चाहती है उपर उठना
अपना विकास करना
दुख दर्द कष्ट
किसी का बांटना।
ऐ मेरे ईश्वर
मैं उस लता को भी उपर
उठने दे सकूं
उसे भी अपना विकास
करने दे सकूं।
पतझर गर्मी वर्षा
है मेरे जीवन में भरे हुए
राह राह पर कांटे चुभते हैं
कांटे चुभते हैं ?
चुभने दो उन्हें।
चुभन है ज़िन्दगी चुभन को झेलो
अपने संग सबको विकास के पथ पर ले लो।
अभिलाषा है कि सबको संग ले कर चलूं
इस पथ पर कभी न डरूं।
अभिलाषा है उपर उठने की मुझे
पर इतना नहीं कि झुक न सकूं
इतना न झुकूं कि उठ न सकूं।
अभिलाषा है उपर उठने की मुझे।
(16 सितम्बर 1999)
पर इतना नहीं कि झुक न सकूं
इतना न झुकूं कि उठ न सकूं।
उठने के नशे में कुचल दूं
उस लता को
जो चाहती है उपर उठना
अपना विकास करना
दुख दर्द कष्ट
किसी का बांटना।
ऐ मेरे ईश्वर
मैं उस लता को भी उपर
उठने दे सकूं
उसे भी अपना विकास
करने दे सकूं।
पतझर गर्मी वर्षा
है मेरे जीवन में भरे हुए
राह राह पर कांटे चुभते हैं
कांटे चुभते हैं ?
चुभने दो उन्हें।
चुभन है ज़िन्दगी चुभन को झेलो
अपने संग सबको विकास के पथ पर ले लो।
अभिलाषा है कि सबको संग ले कर चलूं
इस पथ पर कभी न डरूं।
अभिलाषा है उपर उठने की मुझे
पर इतना नहीं कि झुक न सकूं
इतना न झुकूं कि उठ न सकूं।
अभिलाषा है उपर उठने की मुझे।
(16 सितम्बर 1999)
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