दीदी “समता” की एक रचना-
बीते दिनों को याद करते है हम,
वक्त कुछ कम न था,
ओह !!! कुछ और सँवर गये होते ।
हँसी जो ठहाको में बदल जाती थी,
मगर थी सूखी और बेवजह की,
कुछ वजह होती और मुस्करा लिये होते,
कुछ और सँवर गये होते ।
राहें सुनसान थी मेरी,
मगर एहसास था सुहानेपन का,
काश कुछ समझ होती,
दो चार फूल खिला लिये होते,
कुछ और सँवर गये होते ।
चाँदनी भी निकलती थी अकसर,
हम अँधेरे से खुश थे,
काश, अँधेरे को चाँदनी बना लिये होते
कुछ और सँवर गये होते ।
जब कभी सोचा भी, वह स्वार्थ था,
न परोपकार था, न आदर्श,
काश हम औरो को समर्पित हो गये होते,
कुछ और सँवर गये होते ।
(समता झा)