शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

कुछ और सँवर गये होते

 

दीदी “समता” की एक रचना-

 

 

फूल

बीते दिनों को याद करते है हम,

वक्त कुछ कम न था,

ओह !!!  कुछ और सँवर गये होते ।

हँसी जो ठहाको में बदल जाती थी,

मगर थी सूखी और बेवजह की,

कुछ वजह होती और मुस्करा लिये होते,

कुछ और सँवर गये होते ।

राहें सुनसान थी मेरी,

मगर एहसास था सुहानेपन का,

काश कुछ समझ होती,

दो चार फूल खिला लिये होते,

कुछ और सँवर गये होते ।

चाँदनी भी निकलती थी अकसर,

हम अँधेरे से खुश थे,

काश, अँधेरे को चाँदनी बना लिये होते

कुछ और सँवर गये होते ।

जब कभी सोचा भी, वह स्वार्थ था, 

न परोपकार था, न आदर्श,

काश हम औरो को समर्पित हो गये होते,

कुछ और सँवर गये होते ।

 

(समता झा)

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

देखा मैंने

देखा उड़ते धूल कोDSC02305

कि

झूमते बबूल को

छांव में जो पल रहे

तृण, कर रहे अठकेलियां

वह भी जले वह भी मिटे

बच न सके ताप से ।

देखा जलते हुए तन को

और

घर्षण करते मन को

बूँद-बूँद टपकते,

और

खत्म होते समय को,

देखा पास आते प्रलय को ।

देखा सृजित होते , नष्ट होते

तीव्र सूक्ष्म कणों को

और

पराजित होते नियम को ।

अपनी हीं तलाश में

विकल और विक्षिप्त,

और

देखा आँखों से झड़ते

अश्रु कण को ।

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

कुछ बाते इधर उधर की और “वह आदमी”

DSC03290 इस बार बहुत दिनों तक ब्लाग जगत से दूर रहा । पिछली पोस्ट डाले हुए करीब दो महिने हो चुके है । कारण ? कुछ तो इंटरनेट की समस्या, बीच में गांव भी गया था, और कुछ ब्लागजगत से दूर रहने की इच्छा । अगले महिने मार्च में, ब्लागजगत में आये हुए मुझे पूरे एक साल हो जायेंगे । यहाँ आकर कितना सफल रहा यह नहीं जानता या जानने की इच्छा नहीं, परन्तु एक आत्मसंतुष्टि का भाव मन में जरूर व्याप्त है । यहाँ आकर बहुत कुछ पाया है मैंने । अनेक सुजनो से मित्रता स्थापित हुई और मेरी हिंदी भी पहले से अच्छी हो गयी है । 8-9 वर्षों से हिन्दी लिखना बन्द हो चुका था परन्तु पढ़ना नहीं, हिन्दी मैं नियमित रूप से पढ़ता रहा हूँ । ब्लागजगत में आकर हिन्दीं लेखन करना बहुत हीं सु:खद अनुभव रहा है । बहुत सूक्ष्म और अल्प हीं सही पर अपने अंदर रचनात्मकता को पनपता हुआ महसूस कर रहा हूँ ।

अब कुछ बाते गाँव की । गाँव में हमारी एक रिश्ते की बहन है । “समता” दीदी । गणित से एम.एस.सी(M.Sc.) करने बाद अभी वह एल एन मिथिला विश्वविद्दालय, दरभंगा  से  पी.एच.डी.(Ph.D.) कर रहीं है । एक साधारण ग्रामीण परिवार से होकर, गाँव में रहकर (जहाँ सबसे निकटम महाविद्दालय घर से 20 किलोमीटर दूर है) पी.एच.डी. तक का सफर तय करना, वह भी एक लड़की के लिये किसी अति कष्टसाध्य तपस्या से कम नहीं, जबकी/जहाँ ज्यादातर परिस्थितीयाँ अनुकूल नहीं होती । समता दीदी को लिखने-पढ़ने का भी शौक है । इस बार जब गाँव गया था तो उनकी कुछ कवितायें लिखकर ले आया । आज पढ़िये उनकी कविता “वह आदमी”  ।

 

“वह आदमी”

सर पर सफेद बाल,

और

चेहरे पर झुर्रियां ।

लड़खड़ाते हुए कदम,

और

साँस की तेज रफ़्तार ।

उस आदमी को थी आवश्यकता,

दस रुपये की ।

मैं गलती से पूछ बैठी,

क्या है काम ?

हैरत से वह बोला-

“तुम अब तक हो अंजान ?”

मंत्री जी को लगा बुखार,

छा गये सारे रेडियो अखबार,

उनकी बुखार का चर्चा आम,

तो फिर,

मेरा बुखार क्यों गुमनाम ।

मैंने कहा-

गम की कोई बात नहीं है,

और न हीं कोई,

नयी बात हुई है ।

बड़े लोगो की बुखार है,

इसलिये थोड़ी प्रसिद्धी मिली है ।

 

-(समता झा)

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

किनारा

किनारे को लांघकर किनारा

लकीर पर चढ़ता गया मैं ।

लकीर बढ़ती हीं गयी

और रह गया

मैं किनारे पर हीं ।

आखिर यह किनारा

खत्म क्यों नहीं होता ?

गुरुवार, 10 दिसंबर 2009

यादों का पहाड़

 

DSC00955

पहाड़ से नीचे उतरते हुऐ

दूर तक दिखते

छोटे-छोटे घर

जहाँ कैद है अभी भी

कुछ भूली-बिसरी यादें ।

दूर तक फैला हुआ

कुहासे में लिपटा

गुमशुदा शहर

जहाँ से बच निकला था मैं कभी ।

घुमावदार सड़कों पर

फिसलती बसDSC03225

और इन सड़को से भी ज्यादा

टेढ़ी-मेढ़ी यह जिन्दगी ।

जिन्दगी की दीवार पर

कील की तरह

टंगी कुछ यादें ।

सदियां बीत जाये

भूलने में

कुछ ऐसी यादें ।DSC02881

और तुम्हारे काँधे की गर्म खुशबू

भुला नहीं पाया मैं आजतक ।

अब पहाड़ों पर

नहीं जाता मैं ।