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मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

कि बन जाये आत्मा

 

बहना नदी की तरह

निर्विरोध और तीव्र वेग लिये

कि बन जाये आत्मा

एक नदी चंचल

और मिटा दे अपना अस्तित्व

मिलकर अपने इष्ट से ।

खिलना पुष्प की तरह

महक और सौंदर्य लिये

कि बन जाये आत्मा

एक पुष्प गुच्छ

और कर दे अपना जीवन समर्पित

अपने प्रिय के आंचल में ।

चलना पवन की तरह

वेग और उन्मांद लिये

कि बन जाये आत्मा

एक हवा का झोंखा

और टकराकर किसी ऊँचे पर्वत से

झर जाये झर-झर निर्झर ।

होना विशाल महासागर की तरह

लहरें और कोलाहल लिये

कि बन जाये आत्मा

एक सागर अथाह

और लाख हाहाकार लिये भी

अंदर से हो शांत और गहरा ।

तपना सूरज की तरह

लावा और उष्मा लिये

कि बन जाये आत्मा

एक सूरज चमकदार

और स्वयं जलते हुये भी अनवरत

भर दे जीवन कण कण में ।

(भैया रावेंद्रकुमार रवि द्वारा दिये गये सुझाव के अनुसार उपरोक्त कविता को सम्पादित कर पुनः प्रकाशित किया  गया है )