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रविवार, 16 अगस्त 2009

भारत प्रण



















शांति का अभिलाषी हूँ,
मैं इसके लिये मर सकता हूँ
है शूल बिछे राहों में ,
फूल समझ चल सकता हूँ


तुम बोओगे बीज प्रेम का,
तन के पसीने से सिंचेगे
जो कसमे खायी है हमनें,
मर कर भी उसे निभायेंगे


उस चन्द्र को देखो चल रहा,
गहरे कलंक को लिये हुये
उसकी तरह बनना सीखा है,
है रोशनी उसकी सब के लिये


धिक्कार है उस तन को ,
जो हो न सके जन गण के लिये
धिक्कार है उस नियम को,
जो कर न सके सम सबके लिये


अधिकार न जबतक सम होगा,
यह युद्ध न तब तक कम होगा
अधिकार है सबका एक समान,
रहे इसका सदा ध्यान


उँच नीच का भेद मिटाकर,
छोटे को भी गले लगाकर,
धन का लालच छोड़ कर देखो,
मानवता के मंत्र को सीखो


आन्नद है इसमें इतना,
क्या कह पाओगे कितना
जीवन के चक्के में घिस-पिस कर,
रोता है मानव सुबक सुबक कर


पल भर में क्या हो जायेगा,
नहीं जान इसे कोई पायेगा,
इस पथ पर रोड़े आयेगे,
कांटे पैरो में चुभ- चुभ जायेगे


ललकार रहा हिमालय हमको,
चढना है इसके शिख पर
वर्फिली आँधी आयेगी,
पैर कभी फिसल जायेगा


पर हमको न रुकना है,
मृत्यु से भी न डरना है
जगी है आशा सबके मन में,
साकार करने है सारे सपने


आओ हम सब प्रण ले,
भेद - भाव मिटा लें,
जीवन है छोटी सी,
इसको सफल बना लें


एक नया आलोक फैलाना है,
सबको अपना संदेश सुनाना है,
हम सब को हीं तो मिलकर,
धरती को स्वर्ग बनाना है


(२५ नवम्बर १९९९)


सोमवार, 13 अप्रैल 2009

उठ मानव समय आ गया


उठ मानव समय आ गया
कब तक रहेगा सोता तू ?


उठ अब।

तोड़ पत्थर, सर नहीं।
तोड़ बन्धन, मन नहीं।

अशांत बैठा बहुत दिनों तक,
अब बजा डंका शांति का।
अंधकार फैला है चारो ओर,
दीप जला, प्रकाश ला।

कहां से लायेगा तू दीप,
कहां मिलेगी बाती तेल।
ये शरीर ही दीपक है,
मन है इसकी बाती,
हृदय है तेल,
जला दे दीपक।

बुझा न सके इसे,
कोइ फिर कभी।

कहां कहां भटकेगा तू?
मत भटक, यहीं अटक।

जला दे उस जड़ को,
जो फल न दे सके।
तोड़ दे उन हाथो को,
जो जल न दे सके।
फोड़ दे उन आंखो को,
जो किसी का सुख न देख सके।

विष भर दे उनमें,
जो सताये जाते है।
चण्डी बना दे उनको ,
जो जलाये जाते है।

काट फेंक उस हृदय को,
जो दया न दे सके।
बन्द कर दे उन कानों को,
जो किसी की सुन न सके।

तुझे अब खांसना नहीं,
हुँकार भरना है।
तुझे अब डरना नहीं,
काल बनना है।

उनके लिये,
जो चूसते रक्त गरीबों का।

उस रक्त पिपासु के,
पंख काट दे,
आंखे फोर दे।

दीमक लगा उन जड़ो में,
जो तुझसे उखड़ न सके।

उठ मानव समय आ गया। 


(30 नवम्बर 1999)