मैं मजदूर हूँ।
देखो न,
मेरे हाथ घिसे-पिटे है।
कहते है भाग्यवादी,
हस्तरेखायें बनाती है भाग्य को।
मेरे भाग्य कौन बनायेगा,
देखो न मिट गयी है रेखायें,
हाथों के ही रगड़ से।
मुझको कौन शराब देगा,
अपने ही दुख को,
शराब समझ पी लेता हूँ।
नशे में हूँ इस कदर,
न होश है इधर का,
न होश है उधर का।
कौन मुझको रंग देगा ?
अपने ही रक्त से,
सबको मैं रंगमय कर दूं।
केश मेरे उलझे हुए है,
कौन इसे सँवारेगा,
कब्र में पड़ हूँ मैं,
कौन मुझे नवजीवन देगा,
अपने ही स्वेदकणों से,
सृष्टी रचता हूँ मैं।
मित्र सच्चा कौन है मेरा,
साथ दिया सबने सुख में,
पुर्णिमा गयी,
देखो न अमावस्या आ गयी,
अब सबने विदा लिया।
कहते है बहुत लोग,
मजदूरों की दशा कुछ हुइ ठीक,
क्या खाख दशा हुइ ठीक,
मुझको पढाने के लिये,
उपक्रम रचते है,
"अ-आ" मैंने सीख लिया,
क्या हो गयी पढाई ?
मुझको इतना गड़ा दिया,
इस दलदल में,
कि निकलते निकलते,
वर्षों निकल जायेगें।
कौन मुझे निकालेगा ?
कौन मुझे निकालेगा ?
क्योंकि मै मजदूर हूँ ।
(19 दिसम्बर 1999)
मंगलवार, 28 अप्रैल 2009
बुधवार, 22 अप्रैल 2009
अपराजेय हो जाओगे
देखो,
दूब को।
कुचली जाती है,
रौंदी जाती है,
पर फिर भी बढती है,
आगे चढती है।
रेंग-रेंग कर,
मिट्टी को अपनी भुजाओ में,
देखो, कैसे जकड़ती है।
कड़ी दुपहरी सिखलाती इसको,
सहो सुर्य के प्रचण्ड धूप को।
फिर झूम-झूम कर वर्षा आती है,
इसको जल से तृप्त करती।
रग-रग में दौड़ जाता है,
जीवन द्रव्य।
होता है फिर,
विद्युत संचार।
फिर हुंकार भरती है,
अपरिमित आशाओं के साथ,
आगे बढते जाती है।
देखो,
निर्मम खुर के तले,
कैसे कुचली जाती है।
सहती सब कुछ,
भार टनों का,
जल जाती है,
सड़ जाती है,
जड़ उखाड़ फेकी जाती है।
फिर भी यह न थकती है,
जहां जाती है,
वहीं बढती है
देखो कभी न रुकती है।
हरी रंग है, हरी दिशायें,
अपराजेय है, दूब हरी है।
देखो,
जब चढती है दूब,
ईश्वर के चरणों में,
परम पवित्र कहलाती है।
बन सकते हो, बनो दूब तुम,
अगर दूब बन जाओगे,
अपराजेय हो जाओगे।
(25 जनवरी 2000)
दूब को।
कुचली जाती है,
रौंदी जाती है,
पर फिर भी बढती है,
आगे चढती है।
रेंग-रेंग कर,
मिट्टी को अपनी भुजाओ में,
देखो, कैसे जकड़ती है।
कड़ी दुपहरी सिखलाती इसको,
सहो सुर्य के प्रचण्ड धूप को।
फिर झूम-झूम कर वर्षा आती है,
इसको जल से तृप्त करती।
रग-रग में दौड़ जाता है,
जीवन द्रव्य।
होता है फिर,
विद्युत संचार।
फिर हुंकार भरती है,
अपरिमित आशाओं के साथ,
आगे बढते जाती है।
देखो,
निर्मम खुर के तले,
कैसे कुचली जाती है।
सहती सब कुछ,
भार टनों का,
जल जाती है,
सड़ जाती है,
जड़ उखाड़ फेकी जाती है।
फिर भी यह न थकती है,
जहां जाती है,
वहीं बढती है
देखो कभी न रुकती है।
हरी रंग है, हरी दिशायें,
अपराजेय है, दूब हरी है।
देखो,
जब चढती है दूब,
ईश्वर के चरणों में,
परम पवित्र कहलाती है।
बन सकते हो, बनो दूब तुम,
अगर दूब बन जाओगे,
अपराजेय हो जाओगे।
(25 जनवरी 2000)
रविवार, 19 अप्रैल 2009
हे प्रभु ! विनय करुँ मैं तुझसे
हे प्रभु ! विनय करुँ मैं तुझसे।
हे प्रभु ! देना मुझको बुद्धि,
कर सके हम आत्म शुद्धी,
और देना ज्ञान समान,
हो जाये सत्य का ज्ञान।
कुछ भी नहीं हूँ तेरे सामने,
व्यथित हो कर आया हूँ कहने,
हो जाऊँ तेरी पद धूल,
नहीं चाहता जीवन में फूल।
ना जानूँ मैं रुप तेरा,
और कहां है तेरा बसेरा,
नहीं करूंगा गुणों का वर्णन,
नहीं करूंगा गुणों का वर्णन,
मेरा सबकुछ तुझको अर्पण।
कोई कहता तू है मन्दिर में,
कोई कहता तू है मस्जिद में,
क्षुद्र हूँ, पड़ा हूं दुविधा में,
हे प्रभु ! लेना हमें शरण में।
हे प्रभु ! तू है सबका रक्षक,
तू हीं है जीवन उद्धारक,
ले ले मुझको अपनी शरण में,
विनय करुं मैं तेरी मन में।
कर सकूं सबका सम्मान,
दिला सकूं मैं सबको मान,
कर सकूं गरीबो पर दया,
नहीं हो अपनो से माया।
देना मुझको इतनी शक्ति,
कर सकूं मैं तेरी भक्ति,
भय न हो मृत्यु से कभी,
डरते हैं इससे सभी।
हे प्रभू ! कर दे मन को उज्ज्वल,
भरा पड़ा है इसमें हलाहल,
हे प्रभु ! कर दे इसको अमृत,
देख पड़ा हूँ पाप में लिप्त।
न देना मुझको तू सिद्धी ,
न देना मुझको तू निधी,
देना मुझको शील की शिक्षा,
मागूँ तुझसे इतनी ही भिक्षा।
मोह न हो मुझको कभी धन का,
मोह न हो मुझको कभी तन का,
हे प्रभु ! देना इतनी शक्ती,
मिल जाये मुझको मुक्ती।
हे प्रभु ! और कहूं क्या तुझसे,
लेना मुझको अपनी शरण में,
विनय करूं मैं तेरी मन में,
हे प्रभु ! विनय करूं मैं तुझसे।
बुधवार, 15 अप्रैल 2009
प्रश्न और अर्थ
कुसुम को किसने कहा खिलो,
पवन को किसने कहा चलो,
अग्नि को किसने कहा जलो।
जीवन में निराश क्यों,
मृत्यु का उपहास क्यों,
प्रेम की तलाश क्यों ।
समय क्यों रुकता नहीं,
अहं क्यों झुकता नहीं,
विचार क्यों रुकता नहीं।
भक्ति में इच्छा कैसी,
शक्ती की समिक्षा कैसी,
विश्वास की परिक्षा कैसी।
रंग क्यों अनेक है,
जीवन क्यों एक है।
प्रश्न का हल नहीं,
अर्थ है सभी वही।
सोमवार, 13 अप्रैल 2009
उठ मानव समय आ गया
उठ मानव समय आ गया
कब तक रहेगा सोता तू ?
उठ अब।
तोड़ पत्थर, सर नहीं।
तोड़ बन्धन, मन नहीं।
अशांत बैठा बहुत दिनों तक,
अब बजा डंका शांति का।
अंधकार फैला है चारो ओर,
दीप जला, प्रकाश ला।
कहां से लायेगा तू दीप,
कहां मिलेगी बाती तेल।
ये शरीर ही दीपक है,
मन है इसकी बाती,
हृदय है तेल,
जला दे दीपक।
बुझा न सके इसे,
कोइ फिर कभी।
कहां कहां भटकेगा तू?
मत भटक, यहीं अटक।
जला दे उस जड़ को,
जो फल न दे सके।
तोड़ दे उन हाथो को,
जो जल न दे सके।
फोड़ दे उन आंखो को,
जो किसी का सुख न देख सके।
विष भर दे उनमें,
जो सताये जाते है।
चण्डी बना दे उनको ,
जो जलाये जाते है।
काट फेंक उस हृदय को,
जो दया न दे सके।
बन्द कर दे उन कानों को,
जो किसी की सुन न सके।
तुझे अब खांसना नहीं,
हुँकार भरना है।
तुझे अब डरना नहीं,
काल बनना है।
उनके लिये,
जो चूसते रक्त गरीबों का।
उस रक्त पिपासु के,
पंख काट दे,
आंखे फोर दे।
दीमक लगा उन जड़ो में,
जो तुझसे उखड़ न सके।
उठ मानव समय आ गया।
(30 नवम्बर 1999)
शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009
कारण
ईश्वर के द्वारा बनायी गयी सबसे पहली दुनिया सभी दृष्टीकोणों से सम्पूर्ण थी। परन्तु पता नहीं क्यों यह दुनिया कुछ अधिक दिन तक चल नहीं सकी और नष्ट हो गयी ।
बहुत सोच-विचार के पश्चात ईश्वर ने पुनः एक नई दुनिया बनायी और इस बार उसने इस दुनिया में दुःख, दर्द, कष्ट, दया, प्रेम, घृणा, पश्चाताप और अनेकों कारण डाल दिये ।
और यह दुनिया आज तक चल रही है ।
गुरुवार, 9 अप्रैल 2009
सारा आकाश हमारा है
मैं स्वच्छंद गगन का पंछी
सारा आकाश हमारा है
नये पंख से नये स्वरो से
प्रकृति ने हमें संवारा है
सारा आकाश हमारा है।
उस नये खगों को देखो तुम
मचल मचल सर पटक पटक
नये पंख फैला उड़ने को उत्सुक
उसने भी गर्व से पुकारा है
सारा आकाश हमारा है।
सोने के पिंजरे में बैठा
जो लेता रस का आनन्द भरपूर
वह भी पंखो को फैलाता
पर पिंजरा ही उसका किनारा है
कैसे कह सकता
सारा आकाश हमारा है।
पर उस स्वतन्त्र पंछी से पूछो
जो उड़ता चारो किनारा है
पिंजरे को ठुकराता है
भूखा है गर्वित हो कहता
सारा आकाश हमारा है।
मैं स्वच्छंद गगन का पंछी
सारा आकाश हमारा है
पुनि पुनि कह्ता स्वतन्त्रा अभिलाषी
पुनि पुनि कह्ता स्वतन्त्रा अभिलाषी
सारा आकाश हमारा है
सारा आकाश हमारा है।
(22 दिसम्बर 1999)
(22 दिसम्बर 1999)
सदस्यता लें
संदेश (Atom)