मंगलवार, 12 मई 2015
सोमवार, 4 मई 2015
विवश आदमी
झुकाता है शीश ।
खूंटे को ही समझता है
अपना ईष्ट ।
आँखो पर पट्टियाँ बांधे
लगातार बार - बार
कोल्हू के बैल की तरह
लगाता चक्कर ।
सभ्यता के खूंटे में बंधा
विवश आदमी ।
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बुधवार, 29 अप्रैल 2015
सोमवार, 20 अप्रैल 2015
दूरी आदमी - आदमी के बीच की
चाँद पर चला गया है वह ।
और कहता है
उससे भी आगे जाने की
फिराक में है वह ।
उसके दूत निकल चुके है
अंतरिक्ष की अनंत सैर को
पृथ्वी और सूर्य की
संधी से बाहर
असीम संभावनाओं की तलाश में ।
प्रकाश की गति को
प्राप्त कर लेना चाहता है आदमी
और वह सफल भी होगा ।
बस आदमी और आदमी का विज्ञान
नहीं कर पाया तय दूरी
आदमी - आदमी के बीच की ।
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बुधवार, 17 मार्च 2010
सुबह तक
सूरज का डूबना ।
न जाने कौन सी
एक आग
अन्दर हीं अन्दर
जलती रहती है ।
कण- कण
पिघलता जाता हूँ
सुबह तक
कहाँ बच पाता हूँ ।
सोमवार, 15 मार्च 2010
क्योंकि मैं घबड़ा जाती हूँ तेरी नाराजगी से
दीदी समता की एक रचना-
बगैर आँसू के जो गुलशन हरा न हो,
भला क्या वास्ता हो उस हरियाली से ।
वो आईना धुँधला ही पर जाये तो बेहतर हो
जो खौफ़ का समां बना दे अपनी सफ़ेदगी से ।
बहुत चाहा, बहुत समझा अपना जिसे,
कैसे नवाज दूँ उसे शब्द अजनबी से ।
तेरी फुरकत में नज़र न आये अपनी भी सूरत,
यही वज़ह है कि मैं बचती फिरती हूँ रौशनी से ।
अगर सँवरते हो सिर्फ़ मेरे लिये तो सँवरना छोड़ दो
क्योंकि मुझे तो मुहब्ब्त है बस तेरी सादगी से ।
जब भी मिलते हो तुम दर्द दिल बयां करते हो
मैं हीं तंग आ चुकी हूँ मुहब्बत की राजगी से ।
मेरी गुस्ताखी के बदले अपनों की तरह शिकायत कर दो,
क्योंकि मैं घबड़ा जाती हूँ तेरी नाराजगी से ।
-(समता झा)
सोमवार, 8 मार्च 2010
एक स्तब्ध पेड़
दीदी “समता” की एक रचना-
पतझड़ सी भंगिमा लिये
एक स्तब्ध पेड़ ।
उसकी निस्तब्धता विच्छिन्न क्यों ?
शायद देखता है,
अपने साथियों को,
सावन आने की खुशी में,
खिलते हुऐ ,
हरियाली दिखाते हुऐ ।
मगर वह क्यों वंचित है,
इन खुशियों से ?
प्रकृति नहीं जानता,
भेद भाव का नियम ।
शायद जानता है कि
छिन्न होने वाले सारे
फेंक आये है अपनी कांति को,
अपने ही हाथों से ।
अविच्छिन्नता पसन्द है इसको,
चाहे अवांछित ही क्यों न हो,
पर इसका एहसास,
कहाँ है इसको ।
शायद यह खुश है कि
हमारे सफर की दूरी छोटी है ।
-(समता झा)
गुरुवार, 4 मार्च 2010
पतझड़
इतने वर्षों के बाद,
सोचा, खेलूँगा तुम्हारे संग होली,
लगा दूंगा, थोड़ा सा गुलाल,
तुम्हारे गालों पर,
कुछ रंग जा बसेंगे,
तुम्हारी माँग में ।
ढ़ूंढ़ा अपनी पोटली में,
पर रंग कहाँ बचे थे वहाँ ।
शायद पुराने बक्शे में हो,
पर सबकुछ तो,
साथ ले गयी थी तुम ।
बचा क्या रह गया था,
मेरे पास ।
हाँ याद आया,
तुम्हारे जाने के बाद,
अलमारी में पड़ी,
तुम्हारी सिन्दूर की डिब्बी,
फेंक आया था,
पास के तालाब में ।
आज तक सूखी नहीं यह तालाब,
बस मैं हीं पतझड़ हो गया ।
शनिवार, 20 फ़रवरी 2010
कुछ और सँवर गये होते
दीदी “समता” की एक रचना-
बीते दिनों को याद करते है हम,
वक्त कुछ कम न था,
ओह !!! कुछ और सँवर गये होते ।
हँसी जो ठहाको में बदल जाती थी,
मगर थी सूखी और बेवजह की,
कुछ वजह होती और मुस्करा लिये होते,
कुछ और सँवर गये होते ।
राहें सुनसान थी मेरी,
मगर एहसास था सुहानेपन का,
काश कुछ समझ होती,
दो चार फूल खिला लिये होते,
कुछ और सँवर गये होते ।
चाँदनी भी निकलती थी अकसर,
हम अँधेरे से खुश थे,
काश, अँधेरे को चाँदनी बना लिये होते
कुछ और सँवर गये होते ।
जब कभी सोचा भी, वह स्वार्थ था,
न परोपकार था, न आदर्श,
काश हम औरो को समर्पित हो गये होते,
कुछ और सँवर गये होते ।
(समता झा)
गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010
देखा मैंने
कि
झूमते बबूल को
छांव में जो पल रहे
तृण, कर रहे अठकेलियां
वह भी जले वह भी मिटे
बच न सके ताप से ।
देखा जलते हुए तन को
और
घर्षण करते मन को
बूँद-बूँद टपकते,
और
खत्म होते समय को,
देखा पास आते प्रलय को ।
देखा सृजित होते , नष्ट होते
तीव्र सूक्ष्म कणों को
और
पराजित होते नियम को ।
अपनी हीं तलाश में
विकल और विक्षिप्त,
और
देखा आँखों से झड़ते
अश्रु कण को ।
सोमवार, 14 दिसंबर 2009
किनारा
लकीर पर चढ़ता गया मैं ।
लकीर बढ़ती हीं गयी
और रह गया
मैं किनारे पर हीं ।
आखिर यह किनारा
खत्म क्यों नहीं होता ?
रविवार, 6 दिसंबर 2009
निर्माण
अपनी बात ।
जब भी मन करता है
कह देता हूँ ।
मैं नहीं जानता कि
तुम तक
पहुँच भी पाती है
मेरी आवाज या नहीं ।
फिर भी
चुप नहीं रह पाता मैं ।
मुझे पता है कि
मेरी आवाज बहुत धीमी है ।
मुझे पता है कि
जब भी बोलता हूँ
शब्द लड़खड़ा जाते है मेरे ।
पर क्या
इसलिये मैं चुप हो जाऊँ
कि मैं दहाड़ नहीं सकता ।
मैं चढ़ नहीं सकता पहाड़ों पर
तो क्या ?
मैं बहता रहूँगा नदियों में
कल-कल की ध्वनि बनकर
जो उतरकर आती है
इन्हीं पहाड़ों से ।
मेरे विचारों पर
खामोशी की परत
जरूर चढ़ी है
पर मैं इन्हें बदल दूँगा
वक्त की ऊर्जा में ।
जब भी मैं चुप होता हूँ
बहुत करीब हो जाता हूँ
तुमसे !!!
आओ निर्माण करें ।
बुधवार, 11 नवंबर 2009
चुप हो जाओ
कि एक हवा चली है
चुप हो जाओ
बह जाओ ।
कि एक फूल खिला है
चुप हो जाओ
खिल जाओ ।
कि एक दीप जला है
चुप हो जाओ
जल जाओ ।
कि एक बादल निकला है
चुप हो जाओ
बरस जाओ ।
कि एक पत्ता टूटा है
चुप हो जाओ
खो जाओ ।
कि एक सूरज निकला है
चुप हो जाओ
भर जाओ ।
कि एक प्रेम मिला है
चुप हो जाओ
झुक जाओ ।
मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009
ख़्वाब, परिंदा और कहानी
(केरल में पालघाट दर्रा जो केरल को तमिलनाड़ू तथा कर्नाटक से जोडता हैं और सुन्दर पहाड़ी का दृश्य)
आधे अधूरे ख़्वाब
और यह सिमटता जहान
अपने हीं अन्दर
बार बार
खुद को
ढूँढता रहा हूँ मैं ।
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वक्त का परिंदा
और यह छोटी सी जिंदगी
न जाने कौन सी अँधेरी गली में
बार बार
खुद को
खोता रहा हूँ मैं ।
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अधूरी यह कहानी
और अनकहे शब्द कितने
अपनी ही राह का काँटा
बार बार
खुद को
बनाता रहा हूँ मैं ।
शनिवार, 17 अक्तूबर 2009
दीपावली
मैं तम से भरा अज्ञानी मां
एक दीप जला दो जीवन में मां
मन के कपाट मेरे बन्द है मां
मेरा मार्ग प्रकाशित कर दो मां ।
एक ज्योति जला दो जीवन में
फैला दो उजाला जीवन में
है सघन अंधेरा जीवन में
कुछ रंग भर दो इस जीवन में ।
खिले फूल कमल सा सबका जीवन
महकें फूलों सा यह मन उपवन
फैले दूर दूर तक ज्ञान की हरियाली
भर दे प्रकाश जीवन में सबके दीपावली ।
(आप सभी को दीपावली पर्व की अनेको अनेक शुभकामनायें !!!)
गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009
ऐसा क्यों होता है ?
कम नहीं था
वह प्रेम
जो दिया मैंने तुमको ।
माना कि
तुम्हारी कुछ मजबूरियाँ थी ।
पर
चाहती थी मैं भी
सबकुछ बांटना
तुम्हारा दुःख- सुख
और तुम्हारा द्वन्द ।
मानते हो न तुम
कि
अधिकार था यह मेरा ।
पर तुम्हारा अहम
और तुम्हारी मजबूरी ।
तुम्हारी मजबूरियों से लदे
कंधे पर अपना सिर
रख न पायी मैं
रो न पायी मैं ।
मेरे गर्म आंसू
पिघला न पाये
तुम्हारे जमें हुए खून को ।
शायद यह तुम्हारी महानता थी
या कुछ और ।
अभिशप्त है मेरा जीवन
तुम्हारे इस झूठ को
जीने के लिये ।
माना कि
तुम्हारी परिधि से टूटकर
मै पूर्ण न हो पायी
पर यह सोचो
कितने अकेले
कितने विकल हो
तुम भी
आज तक ।
रह गयी अधूरी मैं
और अधूरे तुम भी
आज तक ।
रविवार, 11 अक्तूबर 2009
मेरे होने का मतलब
जिन्दगी की प्रयोगशाला में बहुत सारे प्रयोग चलते रहते हैं । कुछ मेरे अंदर चल रहे है । कुछ आपके अंदर भी चल रहे होंगे । देखते है ये प्रयोग सफल होते है की नहीं । वैसे इन प्रयोगों के बिना जीवन का बहुत अर्थ भी नहीं । सफलता और असफलता तो आनी जानी रहती है । आत्मा तो बस चलने में है, निर्विकार, निर्भीक और निर्विरोध !!!!
(गाजर के फूल)
रात सिमटती गयी,
दिन निकलता गया,
रंग भरते गये,
मैं निखरता गया ।
संग तेरा जो पाया,
तो लौ जल गयी,
रौशनी मेरे अंदर,
भरती ही गयी ।
तुम हीं तुम हो यहाँ
मैं कहीं भी नहीं,
मेरे होने का मतलब,
तुम ही तो नहीं ।
शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009
शनिवार, 3 अक्तूबर 2009
प्रेम का यह गीत, केरल में बरसात और गाय
अभी अभी जैसे हीं घर के बरामदे की बत्ती जलाई कि एक गाय उठकर खड़ी हो गयी और उसके पीछे उसका बच्चा भी था । अभी यहाँ केरल में तीन दिनों से झमाझम बरसात हो रही है । यहां बैठा मैं पोस्ट लिख रहा हूँ और बाहर वर्षा में नारियल, केले, कटहल और काली मिर्च के पौधे बेतहासा झूम रहे है । बरामदे की बत्ती जलाते ही गाय डर कर खड़ी हो गयी । बरसात से बचने के लिये वह यहाँ आकर बैठ गयी थी पर उसका बच्चा बाहर भींग रहा था । मोबाईल कैमरे से मैनें कुछ चित्र भी ले लिये । रसोई से एक रोटी लाकर, आधी रोटी गाय को खिलायी और और जैसे हीं दूसरी आधी रोटी बच्चे को खिलाने की कोशिश की, कि दोनों भाग खड़े हुए । अब दोनों बाहर बरसात में भींग रही होंगी । इसका पाप भी मेरे सिर ही जायेगा । एक पाप और सही ।
आज शाम में माँ से बात हुई थी । गांव में वर्षा नहीं हो रही है । पता नहीं खेतों में खड़े धान के पौधों पर क्या बीत रही होगी । गृहस्थ मर रहा है । इन्द्र देवता की मेहेरबानी देखिये । जब भी गांव जाता हूँ मैं, वर्षों से एक नहर बनते देखता हूँ । जब से होश संभाला है, करीब 15 वर्ष से देख रहा हूँ, यह नहर बन हीं रही है । पता नहीं इस नहर का पानी कब खेतो में पहुँचेग़ा । पर किसान है कि हार नहीं मानता । भूखे पेट भी वह जी हीं रहा है । उसके बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं । पता नहीं कैसा समाज बन रहा है या बना रहे है हम ।
प्रेम का यह गीत
फूल से लदे धान के पौधे
कंठ तक पानी से भरे खेत ।
प्रेम का यह गीत
बस तुम्हारे लिये है
तुम्हारे लिये………
ओ मेरे देश के
हजारों हजार
श्रमजीवी, कर्मयोद्धा, भूमिपुत्र
बस तुम्हारे लिये ।
नहीं गा सकता
यह गीत हर कोई ।
यह गीत उनका है
जो हर दिन मरते हैं
और
फिनिक्स पक्षी की तरह
जी उठते हैं
अपनी ही राख से ।
सोमवार, 28 सितंबर 2009
असमंजस
तुम हँसती हो
और
हजार – हजार फूल खिल जाते हैं
मेरे जीवन में ।
तुम रोती हो
और
फैल जाता है अँधेरा
दूर - दूर तक
मेरे जीवन में ।
और
जब तुम चुप रहती हो
निर्वात से भर जाती है
मेरी आत्मा ।
न जाने तुम
क्या चाहती हो ?