बुधवार, 29 अप्रैल 2015
सोमवार, 20 अप्रैल 2015
दूरी आदमी - आदमी के बीच की
चाँद पर चला गया है वह ।
और कहता है
उससे भी आगे जाने की
फिराक में है वह ।
उसके दूत निकल चुके है
अंतरिक्ष की अनंत सैर को
पृथ्वी और सूर्य की
संधी से बाहर
असीम संभावनाओं की तलाश में ।
प्रकाश की गति को
प्राप्त कर लेना चाहता है आदमी
और वह सफल भी होगा ।
बस आदमी और आदमी का विज्ञान
नहीं कर पाया तय दूरी
आदमी - आदमी के बीच की ।
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रविवार, 13 जून 2010
मेरे अतीत का आँगन
आह !!!
कैसा है यह दुःसाहस,
देखता हूँ मुड़कर मैं,
अपने अतीत के उस खण्डहर को,
अपने आँगन में,
सर झुकाए मैं खड़ा था ।
टूट रहा था विश्वास,
खत्म हो रहे थे सारे सम्बन्ध,
मेरे मन के उस आँगन में ।
और
मिट चुकी थी
भविष्य की रेखाऐं
मेरे छोटे-छोटे हाथों से ।
मुझे याद नहीं,
माँ का आँचल
जहां मैं अपने आँसू पोछ सकता ।
मुझे अब याद नहीं,
पिता का नर्म स्पर्श ।
मेरा बचपन,
टूट रहा था ।
और मैं-
सर झुकाए आज भी खड़ा हूँ
अतीत के उस आँगन में ।
बुधवार, 9 जून 2010
क्यों…?
खाली रह जाता हूँ मैं,
बार-बार ।
जितना भी तुम भरती हो,
मैं खाली होता जाता हूँ ।
तरल होता जाता हूँ,
पल-पल,
हमेशा,
मैं ठोस होने की कोशिश में ।
बुधवार, 17 मार्च 2010
सुबह तक
सूरज का डूबना ।
न जाने कौन सी
एक आग
अन्दर हीं अन्दर
जलती रहती है ।
कण- कण
पिघलता जाता हूँ
सुबह तक
कहाँ बच पाता हूँ ।
सोमवार, 8 मार्च 2010
एक स्तब्ध पेड़
दीदी “समता” की एक रचना-
पतझड़ सी भंगिमा लिये
एक स्तब्ध पेड़ ।
उसकी निस्तब्धता विच्छिन्न क्यों ?
शायद देखता है,
अपने साथियों को,
सावन आने की खुशी में,
खिलते हुऐ ,
हरियाली दिखाते हुऐ ।
मगर वह क्यों वंचित है,
इन खुशियों से ?
प्रकृति नहीं जानता,
भेद भाव का नियम ।
शायद जानता है कि
छिन्न होने वाले सारे
फेंक आये है अपनी कांति को,
अपने ही हाथों से ।
अविच्छिन्नता पसन्द है इसको,
चाहे अवांछित ही क्यों न हो,
पर इसका एहसास,
कहाँ है इसको ।
शायद यह खुश है कि
हमारे सफर की दूरी छोटी है ।
-(समता झा)
मंगलवार, 15 सितंबर 2009
अपना हीं घर वह तो नहीं
गमगीन है हर आदमी
क्यों खो गया सुख चैन ।
क्यों रोकता कोई नहीं
इस जंग को तूफान को ।
क्यों बह रहा है नालियों में
खून मेरे अपनो का ।
शाख पर जो स्वप्न थे
क्यों झड़ गया वह पर्ण है ।
क्यों हो रहा नंगा यहाँ सब
कैसी मची हुरदंग है ।
जो चले थे हम जलाने
आंगन किसी और का ।
वह दूर से उठता धुँआ
अपना हीं घर वह तो नहीं ।
क्यों सड़क है सुनसान
क्यों गलियाँ है खामोश ।
यह शहर अब
जिंदा लोगो की
कब्रगाह बन चुकी है ।
(चित्र गूगल सर्च से)
मंगलवार, 30 जून 2009
तीन बन्दर
कुछ ने रंग बिरंगी टोपियां पहन रखी थी,
कुछ ने चमकदार घड़िया,
और कुछ पहने हुए थे
काफी चुस्त पतलून।
अपने स्वभाव के विपरीत
वे बहुत शांत दिख रहे थे।
मैंने उन तीन ऐतिहासिक बन्दरों को
पहचानने की बहुत कोशिश की,
क्योंकी भविष्यवाणी हुई थी ,
वे तीन बन्दर फिर से अवतार लेंगे।
झुंड में एक ऐसा बन्दर भी था,
जो थोड़ा अलग दिख रहा था।
पूछ ताछ के बाद पता चला कि यह बन्दर,
गूंगा, बहरा और अन्धा है।
पर आश्चर्य की बात,
यह अपाहिज बन्दर उस दल का नेता था।
जब मैंने कोशिश की,
इस बन्दर के पास जाने की,
तीन बन्दरो ने मेरा रास्ता रोक लिया।
पहले ने दूसरे को इशारा किया
दूसरे ने मेरे दोनों गालो पर
दो जोड़दार थप्पर जड़ दिये।
अपना दूसरा गाल बढाने का
मौका तक नहीं दिया।
तीसरे ने अपने चमकदार,
दूध की तरह सफ़ेद दांत दिखला दिये।
शायद किसी मंहगे टूथपेस्ट से ,
मुंह धोता होगा वह।
ये तीन बन्दर,
उस अपाहिज बन्दर के अंगरक्षक थे।
और शायद तीन अवतार भी।