एक ठण्डी सी जिन्दगी
और मर जाता हूँ चुपचाप ।
होता है इतना
सघन अँधेरा
कि भटकती रहती है
मेरी आत्मा
तुम्हारी तलाश में
शुरू से अंत तक ।
एक ठण्डी सी जिन्दगी
और मर जाता हूँ चुपचाप ।
होता है इतना
सघन अँधेरा
कि भटकती रहती है
मेरी आत्मा
तुम्हारी तलाश में
शुरू से अंत तक ।
आज एक पुरानी कविता प्रस्तुत कर रह हूँ । इस अनगढ़ सी कविता की रचना उस समय की थी जब मैं दसवीं की कक्षा में था ।
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हाय विधाता !!!!!
यह क्या ?
अपनों-अपनों के बीच रण,
दुर्भाग्य हीं है यह मनुष्य का,
उसने हीं तोड़े प्रकृति के सारे नियम ।
अपने स्वार्थ के लिये,
रण करता है वह बार-बार ।
क्या होगा इस सृष्टि का,
होता है आज भाई-भाई के बीच वार ।
खो देता है वह नीति न्याय,
करता है रण वह दिन-रात,
जब तक न बुझे उसकी प्यास ।
हो जाता है वह,
अपनों के रक्त का प्यासा ।
पर क्षुधा शांत नहीं होती उसकी,
इतने से-
वह महाप्रलय को लाता है,
वह महाकाल बन जाता है ।
माता-पिता, भाई बन्धु ,
सभी को खा जाता है ।
अपनी भूख मिटाने के लिये,
वह क्या नहीं कर जाता है ।
मर जाता है, मार देता है,
मरकर भी शांत न होता है ।
करके जाता है वह,
विनाश के साधन को तैयार ।
जो पल भर में, मचा देता है,
बम के एक धमाके से,
लाखों की जान चली जाती है ।
कौवें गिद्ध झपट पड़ते है,
लाखों सड़े-गले लाशों पर ।
मानव के इस क्रूर कर्म से,
प्रकृति घबरा जाती है,
नहीं क्षमा करती वह मानव को,
विकराल रूप धारण कर,
अट्टाहस करके आती है,
वह महाप्रलय को लाती है ।
और फिर अब-
लाखों की जान चली जाती है ।
प्रकृति से जब-जब खिलवाड़ करता मानव,
तब-तब वह घोर बबंडर लाती है ।
आज मानव प्रकृति को देता है नकार,
विनाश के साधन को करता है तैयार,
जो पल भर में मचाता है,
पृथ्वी पर क्रूर हाहाकार ।
क्यों प्रकृति के प्रति इतना विकर्षण ?
क्यों आधुनिकरण के प्रति इतना लगाव ?
मानव –मानव में प्रेम सदा,
करता है मानवता का विकास ।
दुर्भाग्य नहीं सौभाग्य है यह,
जब मानव करता अपना चरम विकास ।
पर रहे ध्यान सदा इसका,
इस विकास के नशे में,
वरन होगा अगर प्रकृति का नाश,
तो एक न एक दिन -
अवश्य हो जायेगा मानव सभ्यता का सर्वनाश ।।
(7 सितम्बर 1999)
चाय,
एक प्याली चाय
सिर्फ चाय नहीं
यह देती है जीवन
उस मरे हुए आदमी को
जो बच निकलता है
सुबह की खूबसूरत मौत से ।
और फिर तैयार होता है
एक आनेवाली मौत के लिये ।
अगर आप कहेंगे कि
चाय पीना, एक नशा है
तो मंजूर है हमें यह नशा ।
एक प्याली चाय
आप खरीद सकते है
दो या तीन रुपये में ।
मिल जायेगी
एक चाय की दूकान
आपको किसी भी बाजार में
बस स्टाप पर
या किसी चौक पर ।
या फिर
अगर आप जानते है
चाय बनाना
तो यह आपकी महानता है ।
यहाँ ज्यादातर लोगो को
नसीब हो जाती है चाय ।
कुछ लोग सुबह के नास्ते में
निगल जाते है
रात की बची हुई सूखी रोटियां
चाय के साथ ।
कुछ लोगों को
‘दानेदार’ या ‘लीफ़-टी’ पसंद है ।
कुछ ‘डस्ट’ से ही चला लेते है
अपना काम ।
कुछ लोग पीते है चाय
स्वाद के लिये
और कुछ
महज टालने के लिये थोड़ी देर तक भूख ।
आजकल चाय भी बहुत
महंगी हो गयी है ।
आज कुछ बातें आम की हो जाये । गाँव में अब आम के ज्यादातर पौधे हर साल नहीं फलते है । इसका कारण पर्यावरण प्रदूषण है या फिर जलवायु परिवर्तन ? या यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है ? इस बार जब मई-जून में गाँव गया था तो कुछ आम के पेड़ फले हुए थे अतः अगली गर्मियों में उनके पुनः फलने की बहुत कम हीं सम्भावना है ।
मैनें देखा है गांव में आम का फलना किसी उत्सव से कम नहीं होता । आम के पेड़ में मंजर आने से लेकर फल टूटने तक । पेड़ की देखभाल, आम के महीने में रात भर जागकर रखवाली, गिरे हुए आमों को इकट्ठा करना सबकुछ एक जुनून की तरह होता है । ज्यादातर आम के पेड़ो की रखवाली बँटाई व्यवस्था (ओगरवाही) के आधार पर होती है । पेड़ की रखवाली पेड़ का मालिक खुद नहीं करता है । पेड़ की रखवाली किसी योग्य व्यक्ति को दे दी जाती है । क्षेत्रिय भाषा मैथिली में उसे ओगरवाह / रखबार कहते है । इसके एवज में वह एक चौथाई आम लेता है । बगीचे में बाँस और फूस से बना छोटा सा मचान डाल दिया जाता है । आने वाले दो-तीन महिने के लिये यही झोपड़ी घर-आंगन-दालान बन जाती है ।
जब भी आम के महिने में आँधी या तूफान आता है लोग-बाग निकल पड़ते है बगीचे में आम बीछने । यह एक बेहतरीन अनुभव है । रात के घने अँधेरे में आप आम के पीछे भागते रहते है । पूरा शरीर भींगा हुआ और कीचड़ से लतपथ रहता है । कई बार तूफान में पेड़ की डाल टूटकर गिर परती है । खतरनाक है यह पर फिर भी इसका अपना अलग रोमांच है । इकट्ठा किये गये आम का ज्यादातर उपयोग अचार बनाने में होता है क्योंकि ये टूटे-फूटे रहते है ।
अभी भी हमारे यहाँ मिथिलांचल में सबसे ज्यादा आम के ही बाग लगाये जाते है । आम की सैकड़ो प्राजातियां मिल जायेगीं आपको । दशहरी, केरवी, फ़जली, कलकत्तिया, बंबईया, मालदह, लंगड़ा बनारसी, सिंदूरी, नकूबी, लाटकम्पू, जर्दालू, रामभोग, लतमुआ, कृष्णभोग, सुपरिया, कर्पुरवा, नैजरा और न जाने कितने ही स्थानीय नाम वाले आम है ।
आजकल कीटनाशकों का बहुत ज्यादा प्रयोग हो रहा है । इसके बहुत हीं अधिक दुष्प्रभाव होते है । पर अन्य विकल्प भी तो नहीं । जब बहुत हीं तेज धूप और गर्मी और पड़ने लगती है तो आम के मंजर सूखकर झरने लगते है । इससे बचने के लिये मंजरो पर पानी का छिड़काव किया जाता है । कृषि विश्वविद्यालयों में इन सब चीजों पर रिसर्च तो हो रहा है पर सही लाभ किसानों तक नहीं पहुंच पाता है । अभी भी इस क्षेत्र में आम का बहुत कम व्यवसायिकरण हुआ है । शेष बातें फिर कभी ।
यहाँ कोचिन (केरल) में हमारे मकान मालिक ने घर के चारो तरफ विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे लगा रखे है । ज्यादातर पेड़-पौधे नारियल, सुपाड़ी, आम, कठहल, अमरूद, मेंहदी, तुलसी, अमलतास और केले के है । काली मिर्च की लतरे सुपारी और अन्य पेड़ों पर चढ़ी रहती है । इन पेड़-पौधो के कारण घर के आस-पास का वातावरण बहुत हीं हरा-भरा और सदाबहार है । एक महत्वपूर्ण चीज यहाँ देखने को मिलती है कि अगर घर के आस-पास अगर थोड़ी सी भी जगह खाली रहे तो लोग पेड़ लगाने से नहीं चूकते है ।
यहाँ आपको सबसे ज्यादा नारियल के पेड़ देखने को मिल जायेगे । बहुत ही ज्यादा नारियल की पैदावार होती है यहाँ, फिर भी नारियल सस्ता नहीं । नारियल का एक डाभ 15-20 रूपये से कम में नहीं मिल पाता है । और ऐसा इस लिये कि यहाँ नारियल की खपत बहुत ही अधिक है । भोजन बनाने में नारियल के तेल का ही प्रयोग होता है और अधिकतर व्यंजनो में भी
यहाँ हमारे मकान के अगल-बगल 5-6 आम के पेड़ लगे हुए हैं । मकान के ठीक सामने जो पेड़ है वह आजकल ताँबे की तरह चमकदार नयी पत्तियों से भर गया है । कई दिन हुए पूरा पेड़ में नये कलश निकल आये है । आम के पेड़ो में मंजर आ चुके है और कुछ में तो छोटे-छोटे टिकोले भी । बहुत ही आश्चर्य होता है यह सब देखकर । अभी तो नवम्बर ही बीत रहा है और यहाँ आम फलने शुरू हो गये !!! अपने यहाँ तो फरवरी-मार्च से आम के पौधे मंजर लेने शुरू करते है ।
यह विविधता दोनों जगह जगह की जलवायु मे अंतर के कारण है । उत्तर भारत में अभी सर्दी की शुरूआत हो रही होगी और यहाँ सर्दी पड़ती ही नहीं है । वर्ष के सभी महिने समशीतोष्ण रहते है । पिछले कई दिनों से यहाँ अच्छी वर्षा हो रही है । यह लौटती हुई मानसून (उत्तर-पूर्व मानसून) की वर्षा है । इस प्रत्यावर्तित मानसून के कारण केरल और तामिलनाडू में काफ़ी वर्षा होती है । केरल की हरियाली का कारण यहाँ की वर्षा है । देश के बहुत कम हिस्से में इतनी अधिक वर्षा होती होगी जितनी यहाँ होती है । कहते है यहाँ बादल बूँद-बूँद नहीं बरसता, बस उडेल देता है । और यह सच भी है ।
कि एक हवा चली है
चुप हो जाओ
बह जाओ ।
कि एक फूल खिला है
चुप हो जाओ
खिल जाओ ।
कि एक दीप जला है
चुप हो जाओ
जल जाओ ।
कि एक बादल निकला है
चुप हो जाओ
बरस जाओ ।
कि एक पत्ता टूटा है
चुप हो जाओ
खो जाओ ।
कि एक सूरज निकला है
चुप हो जाओ
भर जाओ ।
कि एक प्रेम मिला है
चुप हो जाओ
झुक जाओ ।