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बुधवार, 5 अगस्त 2009

जीवन-मृत्यु





एक जिज्ञासा,
मन में उभरी,
जीवन क्या है ?
प्रत्युत्तर मिला-
मृत्यु की ओर अग्रसर,
एक अविराम पथ ।

परन्तु,
समय ,
न चाहते हुए भी,
उस यात्री को,
आगे बढ़ने के लिये,
विवश करता है ।

कितना विवश ?
कितना विक्षिप्त ?
कितना क्षुब्ध ?
है मानव,
है मानव का यह समाज ।

डरता है मनुष्य,
मृत्यु के वरण से,
मृत्यु कठोर है,
असुन्दर है ।
पर,
यही तो शाश्वत है ।

मृत्यु जीवन का अन्त नहीं,
जीवन की है यह पूर्णता ।

जीवन मृत्यु के द्वन्द में,
किसने किसको पछाड़ा,
एक प्रश्न,
जीवन या मृत्यु,
या फिर समय ?


रविवार, 19 अप्रैल 2009

हे प्रभु ! विनय करुँ मैं तुझसे







हे प्रभु ! विनय करुँ मैं तुझसे।

हे प्रभु ! देना मुझको बुद्धि,
कर सके हम आत्म शुद्धी,
और देना ज्ञान समान,
हो जाये सत्य का ज्ञान।

कुछ भी नहीं हूँ तेरे सामने,
व्यथित हो कर आया हूँ कहने,
हो जाऊँ तेरी पद धूल,
नहीं चाहता जीवन में फूल।

ना जानूँ मैं रुप तेरा,
और कहां है तेरा बसेरा,
नहीं करूंगा गुणों का वर्णन,
मेरा सबकुछ तुझको अर्पण।

कोई कहता तू है मन्दिर में,
कोई कहता तू है मस्जिद में,
क्षुद्र हूँ, पड़ा हूं दुविधा में,
हे प्रभु ! लेना हमें शरण में।

हे प्रभु ! तू है सबका रक्षक,
तू हीं है जीवन उद्धारक,
ले ले मुझको अपनी शरण में,
विनय करुं मैं तेरी मन में।

कर सकूं सबका सम्मान,
दिला सकूं मैं सबको मान,
कर सकूं गरीबो पर दया,
नहीं हो अपनो से माया।

देना मुझको इतनी शक्ति,
कर सकूं मैं तेरी भक्ति,
भय न हो मृत्यु से कभी,
डरते हैं इससे सभी।

हे प्रभू ! कर दे मन को उज्ज्वल,
भरा पड़ा है इसमें हलाहल,
हे प्रभु ! कर दे इसको अमृत,
देख पड़ा हूँ पाप में लिप्त।

न देना मुझको तू सिद्धी ,
न देना मुझको तू निधी,
देना मुझको शील की शिक्षा,
मागूँ तुझसे इतनी ही भिक्षा।

मोह न हो मुझको कभी धन का,
मोह न हो मुझको कभी तन का,
हे प्रभु ! देना इतनी शक्ती,
मिल जाये मुझको मुक्ती।

हे प्रभु ! और कहूं क्या तुझसे,
लेना मुझको अपनी शरण में,
विनय करूं मैं तेरी मन में,
हे प्रभु ! विनय करूं मैं तुझसे।