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गुरुवार, 10 सितंबर 2009

पथभ्रष्ट

 

अपनी मुक्ति का मार्ग

ढूँढते हुऐ

यहां तक

आ पहुँचे थे

वे लोग ।

पूछ रहे थे

पता ।

कौन सा

मार्ग

बताता 

पथभ्रष्ट  मैं । 

जो मार्ग

बताया मैनें

वह ले गयी उन्हें

स्वंय तक ।

अब वे भी

मेरी तरह

पथभ्रष्ट हैं ।

शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

मुक्ति का मार्ग

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 (संत तिरुवल्लुवर की प्रतिमा और विवेकानंद रॉक मेमोरियल, पीछे से सुर्योदय का दॄश्य)

 

 

खरीददार हूं मैं,

खरीदता हूँ मैं,

सबकुछ,

तुम्हारी,

आत्मा, शरीर, मन ।

 

मैं खरीदता हूँ,

समय और आकाश,

ताकि तुम,

पहुँच न सको,

अपनी उर्जा के स्रोत तक ।

 

क्या बेचोगे,

अपने आप को तुम ?

जो भी मूल्य लगाओ,

मैं खरीद लेता हूँ ।

 

मैं खरीदता हूँ,

ताकि तुम देख न सको,

अपनी आँखो में छिपे हुये,

कुछ निशान ।

क्या कोई देख सकता है,

स्वंय अपनी आँखो में ।

 

सदियों पहले तुमनें बेचा था,

स्वंय को,

मेरे हाथो,

ताकि बची रह सके,

तुम्हारी आने वाली पीढ़ी ।

पीढ़ी - दर - पीढ़ी,

न जाने कब से,

यही चलता आया है ।

 

ढूँढ रहे हो युगों से,

तुम मुझे,

कि,

अगर मैं मिल जाऊं,

तो अपना मूल्य,

वापस कर सको मुझे.

पा सको,

अपनी मुक्ति,

मुझसे ।

 

अब तक तो तुम,

भूल भी चुके हो,

कि बिके हुये हो

तुम ।

कैसे ढूँढोगे अपनी,

मुक्ति का मार्ग ?

 

मुझे पता है,

सबकुछ पता है ।

पर,

नहीं बता सकता मैं ।

 

युगों युगों से,

ढूँढ रहा हूँ,

मैं भी,

अपनी मुक्ति का मार्ग ।

शायद मैं तुम्हारा ईश्वर हूँ,

या तुम मेरे I

 

 

(आज उड़न तश्तरी पर आदरणीय समीर लाल जी की पोस्ट पढी "कैसा ये कहर!" । सोचा क्यों न मैं भी विंडोज़ लाईव राइटर पर लिखने का प्रयास करुं। वाकई में ब्लाग लेखन के लिये यह बहुत हीं मजेदार और सुविधाजनक औजार है। उन्हीं के शब्दो में भूल चूक लेनी देनी।)