आह !!!
कैसा है यह दुःसाहस,
देखता हूँ मुड़कर मैं,
अपने अतीत के उस खण्डहर को,
अपने आँगन में,
सर झुकाए मैं खड़ा था ।
टूट रहा था विश्वास,
खत्म हो रहे थे सारे सम्बन्ध,
मेरे मन के उस आँगन में ।
और
मिट चुकी थी
भविष्य की रेखाऐं
मेरे छोटे-छोटे हाथों से ।
मुझे याद नहीं,
माँ का आँचल
जहां मैं अपने आँसू पोछ सकता ।
मुझे अब याद नहीं,
पिता का नर्म स्पर्श ।
मेरा बचपन,
टूट रहा था ।
और मैं-
सर झुकाए आज भी खड़ा हूँ
अतीत के उस आँगन में ।
bahut sunder likha hai. yu hi likhte rahiye.
जवाब देंहटाएंAteet ka aangan bhala kaun chhod paya! Par aapka andaze bayaan khoob hee hai!
जवाब देंहटाएंJab ateet ka ek khandhar ban saamne aaye to kitna dard hota hai...gazab ke b hav ubhre hain!
जवाब देंहटाएंआज बहुत दिनों के बाद आप के ब्ला़ग पर आना हुआ । भावनाओं को सुंदर शब्द दिए हैं आपने ।
जवाब देंहटाएंअतीत का आंगन और बचपन का टूटना
जवाब देंहटाएंबहुत खूब .. सुन्दर
खूबसूरत अभ्व्यक्ति
जवाब देंहटाएंबढ़िया रचना!
जवाब देंहटाएंएक मुकम्मल बयान,
जवाब देंहटाएंअधूरेपन के मुकम्मल एहसास का ।
बेहद खूबसूरत,
अपनी तपिश में पिघलता हुआ !
बहुत बहुत बधाई !
आह !!!
जवाब देंहटाएंकैसा है यह दुःसाहस,
…
…
...
मेरा बचपन,
टूट रहा था ।
और मैं-
सर झुकाए आज भी खड़ा हूँ
अतीत के उस आँगन में !
isliye mukammal hai .
यह कविता दिल को छू गई...... बहुत सुंदर......
जवाब देंहटाएंअतीत देखकर सर उठायें, प्रसन्न हों और उत्साह संचारित करें जैसा बचपन में था ।
जवाब देंहटाएंएक अच्छी कृति
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपका बलोग पढकर अच्चा लगा । आपके चिट्ठों को इंडलि में शामिल करने से अन्य कयी चिट्ठाकारों के सम्पर्क में आने की सम्भावना ज़्यादा हैं । एक बार इंडलि देखने से आपको भी यकीन हो जायेगा ।
aap nisandeh achcha kar rahe hai. kavita se to pushti ho rahi hai. ishwar ke sun lene ke karan? khair badhai swikare.
जवाब देंहटाएंअतीत के कठिन पलों को याद करना दुस्साहस ही है.
जवाब देंहटाएंmain aap se bohot prabhvit hu... maine bhi apna blog shuru kiya hai... mere prayas me main aapke evam sabhi ki tippaniya chahunga...taakij main apne prayso ko aur bhi sudhaar saku...
जवाब देंहटाएंhttp://sunhariyaadein.blogspot.com/
bhawbhini rachna.
जवाब देंहटाएंbhavuk rachana ...........sundar prastuti
जवाब देंहटाएंचंदन जी आपकी कविता पढ़कर अपनी एक कविता याद आ गई-
जवाब देंहटाएंअतीत के कूप से जंरूरत के लोटे से
अनुभव का जल खींचता हूं
काम की नई फसल बोने से पहले
वर्तमान की जमीन सींचता हूं।
तो भैया अतीत के आंगन में सिर झ़काकर नहीं उठाकर खड़े होओ,तभी इस वर्तमान को बेहतर अतीत के रूप में याद कर सकोगे।
शुभकामनाएं।
अतीत के आँगन मे खड़े रह जाना दुखद तो होता है..मगर वक्त आगे बढ़ता रहता है..और भविष्य की तमाम नेमतें अपने दरवाजे पर हमारा इंतजार भी करती रहती हैं..सो समय की धारा मे खुद को निढाल छोड़ कर देखिये..जाने किधर ले जाये..
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति....
जवाब देंहटाएंMast hai Bhaut
जवाब देंहटाएंMujhe bhi yaad aata hai mujhe mera atit.
Jis atit mein humnein guzare woh pal the
miss.u
सुन्दर भाव वाह वाह
जवाब देंहटाएंबराक़ साहब के नाम एक खत
महाजन की भारत-यात्रा
वाह ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता
मन को भावुक कर दिया
आभार / शुभ कामनाएं
मुड़ कर देखिए, नया सवेरा आया है.
जवाब देंहटाएंtxtemail
जवाब देंहटाएंमुझे याद नहीं,
जवाब देंहटाएंमाँ का आँचल
जहां मैं अपने आँसू पोछ सकता ।
मुझे अब याद नहीं,
पिता का नर्म स्पर्श...
यह जो लिखा आपने... दिल को छू भी लिया, मरोड़ भी दिया... आह
बहुत सुंदर रचना...कुछ नया पोस्ट करिए....
जवाब देंहटाएंअपने आँगन में,
जवाब देंहटाएंसर झुकाए मैं खड़ा था ।
टूट रहा था विश्वास,
खत्म हो रहे थे सारे सम्बन्ध,bahut sunder.
बढिया
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