कि
झूमते बबूल को
छांव में जो पल रहे
तृण, कर रहे अठकेलियां
वह भी जले वह भी मिटे
बच न सके ताप से ।
देखा जलते हुए तन को
और
घर्षण करते मन को
बूँद-बूँद टपकते,
और
खत्म होते समय को,
देखा पास आते प्रलय को ।
देखा सृजित होते , नष्ट होते
तीव्र सूक्ष्म कणों को
और
पराजित होते नियम को ।
अपनी हीं तलाश में
विकल और विक्षिप्त,
और
देखा आँखों से झड़ते
अश्रु कण को ।