कम नहीं था
वह प्रेम
जो दिया मैंने तुमको ।
माना कि
तुम्हारी कुछ मजबूरियाँ थी ।
पर
चाहती थी मैं भी
सबकुछ बांटना
तुम्हारा दुःख- सुख
और तुम्हारा द्वन्द ।
मानते हो न तुम
कि
अधिकार था यह मेरा ।
पर तुम्हारा अहम
और तुम्हारी मजबूरी ।
तुम्हारी मजबूरियों से लदे
कंधे पर अपना सिर
रख न पायी मैं
रो न पायी मैं ।
मेरे गर्म आंसू
पिघला न पाये
तुम्हारे जमें हुए खून को ।
शायद यह तुम्हारी महानता थी
या कुछ और ।
अभिशप्त है मेरा जीवन
तुम्हारे इस झूठ को
जीने के लिये ।
माना कि
तुम्हारी परिधि से टूटकर
मै पूर्ण न हो पायी
पर यह सोचो
कितने अकेले
कितने विकल हो
तुम भी
आज तक ।
रह गयी अधूरी मैं
और अधूरे तुम भी
आज तक ।