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सोमवार, 13 अप्रैल 2009
उठ मानव समय आ गया
उठ मानव समय आ गया
कब तक रहेगा सोता तू ?
उठ अब।
तोड़ पत्थर, सर नहीं।
तोड़ बन्धन, मन नहीं।
अशांत बैठा बहुत दिनों तक,
अब बजा डंका शांति का।
अंधकार फैला है चारो ओर,
दीप जला, प्रकाश ला।
कहां से लायेगा तू दीप,
कहां मिलेगी बाती तेल।
ये शरीर ही दीपक है,
मन है इसकी बाती,
हृदय है तेल,
जला दे दीपक।
बुझा न सके इसे,
कोइ फिर कभी।
कहां कहां भटकेगा तू?
मत भटक, यहीं अटक।
जला दे उस जड़ को,
जो फल न दे सके।
तोड़ दे उन हाथो को,
जो जल न दे सके।
फोड़ दे उन आंखो को,
जो किसी का सुख न देख सके।
विष भर दे उनमें,
जो सताये जाते है।
चण्डी बना दे उनको ,
जो जलाये जाते है।
काट फेंक उस हृदय को,
जो दया न दे सके।
बन्द कर दे उन कानों को,
जो किसी की सुन न सके।
तुझे अब खांसना नहीं,
हुँकार भरना है।
तुझे अब डरना नहीं,
काल बनना है।
उनके लिये,
जो चूसते रक्त गरीबों का।
उस रक्त पिपासु के,
पंख काट दे,
आंखे फोर दे।
दीमक लगा उन जड़ो में,
जो तुझसे उखड़ न सके।
उठ मानव समय आ गया।
(30 नवम्बर 1999)
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