शांति का अभिलाषी हूँ,
मैं इसके लिये मर सकता हूँ ।
है शूल बिछे राहों में ,
फूल समझ चल सकता हूँ ।
तुम बोओगे बीज प्रेम का,
तन के पसीने से सिंचेगे ।
जो कसमे खायी है हमनें,
मर कर भी उसे निभायेंगे ।
उस चन्द्र को देखो चल रहा,
गहरे कलंक को लिये हुये ।
उसकी तरह बनना सीखा है,
है रोशनी उसकी सब के लिये ।
धिक्कार है उस तन को ,
जो हो न सके जन गण के लिये ।
धिक्कार है उस नियम को,
जो कर न सके सम सबके लिये ।
अधिकार न जबतक सम होगा,
यह युद्ध न तब तक कम होगा ।
अधिकार है सबका एक समान,
रहे इसका सदा ध्यान ।
उँच नीच का भेद मिटाकर,
छोटे को भी गले लगाकर,
धन का लालच छोड़ कर देखो,
मानवता के मंत्र को सीखो ।
आन्नद है इसमें इतना,
क्या कह पाओगे कितना ।
जीवन के चक्के में घिस-पिस कर,
रोता है मानव सुबक सुबक कर ।
पल भर में क्या हो जायेगा,
नहीं जान इसे कोई पायेगा,
इस पथ पर रोड़े आयेगे,
कांटे पैरो में चुभ- चुभ जायेगे ।
ललकार रहा हिमालय हमको,
चढना है इसके शिख पर ।
वर्फिली आँधी आयेगी,
पैर कभी फिसल जायेगा ।
पर हमको न रुकना है,
मृत्यु से भी न डरना है ।
जगी है आशा सबके मन में,
साकार करने है सारे सपने ।
आओ हम सब प्रण ले,
भेद - भाव मिटा लें,
जीवन है छोटी सी,
इसको सफल बना लें ।
एक नया आलोक फैलाना है,
सबको अपना संदेश सुनाना है,
हम सब को हीं तो मिलकर,
धरती को स्वर्ग बनाना है ।
(२५ नवम्बर १९९९)