गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

ऐसा क्यों होता है ?

 

कम नहीं था

वह प्रेम

जो दिया मैंने तुमको ।

माना कि

तुम्हारी कुछ मजबूरियाँ थी ।

पर

चाहती थी मैं भी

सबकुछ बांटना

तुम्हारा दुःख- सुख

और तुम्हारा द्वन्द ।

मानते हो  न तुम

कि

अधिकार था यह मेरा ।

पर तुम्हारा अहम

और तुम्हारी मजबूरी ।

तुम्हारी मजबूरियों से लदे

कंधे पर अपना सिर

रख न पायी मैं

रो न पायी मैं ।

मेरे गर्म आंसू

पिघला न पाये

तुम्हारे जमें हुए खून को ।

शायद यह तुम्हारी महानता थी

या कुछ और ।

अभिशप्त है मेरा जीवन

तुम्हारे इस झूठ को

जीने के लिये ।

माना कि

तुम्हारी परिधि से टूटकर

मै पूर्ण न हो पायी

पर यह सोचो

कितने अकेले

कितने विकल हो

तुम भी

आज तक ।

रह गयी अधूरी मैं

और अधूरे तुम भी

आज तक ।

21 टिप्‍पणियां:

  1. तुम्हारी परिधि से टूटकर
    मै पूर्ण न हो पायी
    परिधि से टूटा कब पूर्ण हो पाया है
    सुन्दर अभिव्यक्ति

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  2. चाहती थी मैं भी
    सबकुछ बांटना

    रह गयी अधूरी मैं
    और अधूरे तुम भी
    आज तक ।

    It's seems like my feelings... good :)

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  3. बहुत सुन्दर कविता, चंदन!

    दिल को छू लेने वाली.

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  4. kuch to majburia rahi hongi yuhi koee............रह गयी अधूरी मैं

    और अधूरे तुम भी

    आज तक ।..ik puri kavita...

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  5. बहुत सुन्दर रचना भाई!! बधाई.

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  6. माना कि
    तुम्हारी परिधि से टूटकर
    मै पूर्ण न हो पायी
    पर यह सोचो
    कितने अकेले
    कितने विकल हो
    तुम भी
    आज तक ।
    रह गयी अधूरी मैं
    और अधूरे तुम भी
    आज तक ।

    sundar rachna..

    जवाब देंहटाएं
  7. पर यह सोचो
    कितने अकेले
    कितने विकल हो
    तुम भी
    आज तक ।
    रह गयी अधूरी मैं
    और अधूरे तुम भी


    nishabd hoon ........... ab ........ aisa laga ki apni hi kahani hai........

    जवाब देंहटाएं
  8. रह गयी अधूरी मैं

    और अधूरे तुम भी

    आज तक ।

    sundar line

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  9. दिल को छू लेने वाली बहुत सुन्दर कविता.............
    आपको और परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ

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  10. चन्दन जी सुन्दर कविता
    आपको और आपके परिवार को दीपावली की शुभकामनाये

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  11. Paridhibandh gar gherke na rakhen to alag hee ho jana padta hai..nisarg ke niyam kee khilafat kaun kar paya?

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  12. पर यह सोचो
    कितने अकेले
    कितने विकल हो
    तुम भी
    आज तक ।
    रह गयी अधूरी मैं
    और अधूरे तुम भी
    आज तक ।

    सुन्दर कविता!

    दीपावली, गोवर्धन-पूजा और भइया-दूज पर आपको ढेरों शुभकामनाएँ!

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  13. really one of ur best creations....

    आपकी यह कविता निस्सन्देह हर किसी व्‍यक्ति के जीवन की एक पहलू का चित्रांकन है.
    बहुत ही वास्तविक एवं सुंदर कविता!!

    "शायद यह तुम्हारी महानता थी
    या कुछ और ।
    अभिशप्त है मेरा जीवन
    तुम्हारे इस झूठ को
    जीने के लिये ।
    ....
    पर यह सोचो
    कितने अकेले
    कितने विकल हो
    तुम भी
    आज तक ।
    रह गयी अधूरी मैं
    और अधूरे तुम भी
    आज तक ।"

    जवाब देंहटाएं
  14. सुन्दर रचना!

    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
    आप को दीपावली की शुभकामनायें !!
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

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  15. दीपावली, गोवर्धन-पूजा और भइया-दूज पर आपको ढेरों शुभकामनाएँ!

    जवाब देंहटाएं
  16. तुम्हारी परिधि से टूटकर

    मै पूर्ण न हो पायी

    पर यह सोचो

    कितने अकेले

    कितने विकल हो

    तुम भी

    आज तक ।

    रह गयी अधूरी मैं

    और अधूरे तुम भी

    आज तक ।

    का बात है चन्दन बाबू !!
    सबका दुखडा सुनाए दिए हो का...
    सब एक ही बात कह रहे हैं...
    लेकिन कविता में भावः बहुत सुन्दर है....और हाँ जैसे की वर्मा जी कहे हैं...जब परिधि टूट जावे है तो पूर्णता भी भंग हो जावे है ..
    अनुपम कृति...

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  17. ऐसा ही होता है - प्रेम प्रतिदान नहीं मांग पाता।

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  18. प्रिय मित्र !

    प्रेम आधा नहीं होता
    न वह कम होता न ज्यादा
    वह तुलनात्मक, मात्रात्मक नही होता
    वह या तो होता है या नहीं होता
    जब होता है तो सब भरा-भरा लगता है

    "माना कि

    तुम्हारी परिधि से टूटकर

    मै पूर्ण न हो पायी

    पर यह सोचो

    कितने अकेले

    कितने विकल हो

    तुम भी

    आज तक ।

    रह गयी अधूरी मैं

    और अधूरे तुम भी

    आज तक ।
    और जब नहीं होता तो नहीं ही होता "

    यह आधा-अधूरापन
    परिधियों के टूटने का है
    या केंद्र के बदल जाने का
    निश्चित जानो केंद्र के बिना
    परिधियों का कोई अस्तित्व नहीं होता ।

    http://gunjanugunj.blogspot.com


    --------------------------------

    दीपावली की शुभकामनाएँ स्वीकार करें ।

    ...................................

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  19. virah ko lekar ya sambando ke ganit mein upjaney wali jatilata ko lekar jitni bhi rachnayein dekhney ko milti hain ek bahut hi gahri samsya ko ingit karti hain.. ki aadmi ka samaj kahin na kahin itihas ke kisi ajeeb se mod par aakar bhatak gya hai. varna nari aur purush ka sambandh bahut hi komal somay aur dono pakshon ko aanand ki prtiti kraney wala hona chahiye tha.lekin aisa hai nahin. karan? hum sanskarit roop se hinsak hain.aur hinsa ka sangopang sammaan kartey hain, usye pratishtha dete hain.hamarey jeevan mein prem to sabsey jhootha shabd hai.. jiski koi vyavharikta hi nahin. prem ka hum ABC bhi nahin jantey...itani lambi tippni ke liye kshma chahta hoon. is kavita ne meri kisi dukhti rag ko choo liya aur bahaka diya..

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  20. चंदन जी थोड़ा देर से आ पाया..मगर दुरस्त आया..बड़ी भावुक बना देने वाली कविता..यक़ीन करना मुश्किल होता है कि किसी स्त्री ने इसे नही लिखा है..सच ना?
    बद्र साहब का शेर याद आया
    कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
    यूँ ही कोई बेवफ़ा नही होता.

    आभार

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