कर दो बन्द मुख द्वंद का,
अब सहा नहीं जाता।
थक गया हूँ,
चूर - चूर हो गया हूँ,
अब रहा नहीं जाता।
भागता रहा वर्षो तक,
इस काली रेखा के पीछे,
जब आँख खुली मेरी,
बचे थे हाथों में मेरे,
चंद रेत के कण।
निशाचर बना,
पिचाश बना,
अपनी अग्नि से,
सबको जलाया,
मानवता कराह उठी।
मैं खुश हुआ,
इसलिये कि,
रक्त बह गया है,
आग जल गया है।
पर मिला क्या मुझे,
आज स्वंय इस आग में,
जल रहा हूँ।
शपथ लेता हूँ मैं,
अब युद्ध न होने दूँगा,
शपथ लेता हूँ मैं,
निज रक्त का कण - कण बहा दूँगा।
अब झुक सकता नहीं,
अब रुक सकता नहीं,
विश्वास नया जग गया,
उमंग नया भर गया।
जगह नहीं हृदय में,
द्वेष का द्वंद का,
कलह का,
दुर्गन्ध का।
विचार नया रचित हुआ,
पर्ण नया पल्लवित हुआ
कुविचार अब समाज का,
क्षणों में विघटित हुआ।
समता का बीज बो,
विकास की ओर बढे़,
भुजाओं में शक्ति है,
सौंदर्यमय सृष्टि रचे।
रे मानव कब नवगीत तू गायेगा,
रे मानव कब तक तू निज को ,
अहं की बलि चढ़ायेगा।
(२००१)
अब सहा नहीं जाता।
थक गया हूँ,
चूर - चूर हो गया हूँ,
अब रहा नहीं जाता।
भागता रहा वर्षो तक,
इस काली रेखा के पीछे,
जब आँख खुली मेरी,
बचे थे हाथों में मेरे,
चंद रेत के कण।
निशाचर बना,
पिचाश बना,
अपनी अग्नि से,
सबको जलाया,
मानवता कराह उठी।
मैं खुश हुआ,
इसलिये कि,
रक्त बह गया है,
आग जल गया है।
पर मिला क्या मुझे,
आज स्वंय इस आग में,
जल रहा हूँ।
शपथ लेता हूँ मैं,
अब युद्ध न होने दूँगा,
शपथ लेता हूँ मैं,
निज रक्त का कण - कण बहा दूँगा।
अब झुक सकता नहीं,
अब रुक सकता नहीं,
विश्वास नया जग गया,
उमंग नया भर गया।
जगह नहीं हृदय में,
द्वेष का द्वंद का,
कलह का,
दुर्गन्ध का।
विचार नया रचित हुआ,
पर्ण नया पल्लवित हुआ
कुविचार अब समाज का,
क्षणों में विघटित हुआ।
समता का बीज बो,
विकास की ओर बढे़,
भुजाओं में शक्ति है,
सौंदर्यमय सृष्टि रचे।
रे मानव कब नवगीत तू गायेगा,
रे मानव कब तक तू निज को ,
अहं की बलि चढ़ायेगा।
(२००१)