मंगलवार, 25 अगस्त 2009

रे मानव कब तक तू निज को अहं की बलि चढ़ायेगा




कर दो बन्द मुख द्वंद का,
अब सहा नहीं जाता।
थक गया हूँ,
चूर - चूर हो गया हूँ,
अब रहा नहीं जाता।


भागता रहा वर्षो तक,
इस काली रेखा के पीछे,
जब आँख खुली मेरी,
बचे थे हाथों में मेरे,
चंद रेत के कण।


निशाचर बना,
पिचाश बना,
अपनी अग्नि से,
सबको जलाया,
मानवता कराह उठी।


मैं खुश हुआ,
इसलिये कि,
रक्त बह गया है,
आग जल गया है।


पर मिला क्या मुझे,
आज स्वंय इस आग में,
जल रहा हूँ।


शपथ लेता हूँ मैं,
अब युद्ध न होने दूँगा,
शपथ लेता हूँ मैं,
निज रक्त का कण - कण बहा दूँगा।


अब झुक सकता नहीं,
अब रुक सकता नहीं,
विश्वास नया जग गया,
उमंग नया भर गया।


जगह नहीं हृदय में,
द्वेष का द्वंद का,
कलह का,
दुर्गन्ध का।


विचार नया रचित हुआ,
पर्ण नया पल्लवित हुआ
कुविचार अब समाज का,
क्षणों में विघटित हुआ।


समता का बीज बो,
विकास की ओर बढे़,
भुजाओं में शक्ति है,
सौंदर्यमय सृष्टि रचे।


रे मानव कब नवगीत तू गायेगा,
रे मानव कब तक तू निज को ,
अहं की बलि चढ़ायेगा।


(२००१)



20 टिप्‍पणियां:

  1. पर मिला क्या मुझे,
    आज स्वंय इस आग में,
    जल रहा हूँ।
    चिंतनीय विषय.
    शानदार कविता

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  2. बहुत गहरा चिन्तन और उम्दा भाव!

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  3. शपथ लेता हूँ मैं,
    अब युद्ध न होने दूँगा,
    शपथ लेता हूँ मैं,
    निज रक्त का कण - कण बहा दूँगा।


    युद्ध कभी सुखद नहीं होते... काश आप जैसा ही संकल्प पूरी दुनिया ले पाती...

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  4. कितने सुन्दर मनोभाव रहे होंगे एस पंक्ति को रचते वक्त काश ये विचार थिर राह पाते...आभार एस मनोभाव के लिए.....

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  5. Ek 'manavtaa'kee karah...waqayee mahsoos huee, in alfazon ke zariye!

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  6. badi gambhir baat likhi hai.Asha hai aaj ki pidhi ise padhkar aisi hi sankalp lein our duniya ko shaantmay bane dein

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  7. शपथ लेता हूँ मैं,
    अब युद्ध न होने दूँगा,
    शपथ लेता हूँ मैं,
    निज रक्त का कण - कण बहा दूँगा।


    अब झुक सकता नहीं,
    अब रुक सकता नहीं,
    विश्वास नया जग गया,
    उमंग नया भर गया।

    सशक्त रचना ...!!

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  8. बहुत ही सुंदर, गहराई के साथ और नए अंदाज़ में लिखी हुई आपकी ये रचना बहुत अच्छी लगी !

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  9. चंदन जी,

    हिन्दी की पांरपरिक कविता के शैली के अनुरूप ही शब्द चयन रचना के भावों को गहराईयाँ प्रदान करता है।

    विचार नया रचित हुआ,
    पर्ण नया पल्लवित हुआ
    कुविचार अब समाज का,
    क्षणों में विघटित हुआ।


    समता का बीज बो,
    विकास की ओर बढे़,
    भुजाओं में शक्ति है,
    सौंदर्यमय सृष्टि रचे।


    रे मानव कब नवगीत तू गायेगा

    बड़ा ही सार्थक और समसामयिक प्रश्न उठाती हुई रचना।

    बधाईयाँ,

    मुकेश कुमार तिवारी

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  10. बहुत खूब.. सटीक और स्पष्ट कविता... हैपी ब्लॉगिंग :)

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  11. टिप्पणी द्वरा मनोबल बढाने के लिये आप सभी का हृदय से आभार.

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  12. शपथ लेता हूँ मैं,
    अब युद्ध न होने दूँगा,
    शपथ लेता हूँ मैं,
    निज रक्त का कण - कण बहा दूँगा।
    kaash har manav ye sapath le le...


    "रे मानव कब नवगीत तू गायेगा,
    रे मानव कब तक तू निज को ,
    अहं की बलि चढ़ायेगा।"
    self respect jab ego main parivartit ho jaati hai to ye prashan obvious hai..

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  13. SAARTHAK ......... SAJEEV LEKHAN HAI AAPKA IS RACHNA MEIN ......... JITNI BHI TAAREF KAREN KAM HAI .......

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  14. चन्‍दन जी नमस्‍कार
    आपने मेरे संकल्‍प ब्‍लाग को पढ़ा और तारीफ की इसके लिए बहुत बहुत शुक्रिया
    बहुत अच्‍छी कविता लिख्‍ाी है आपने
    मैं कल्‍पना कर रहा हूं कि जब आप इस कविता की रचना कर रहे होंगे तभी आपके मन के क्‍या भाव आया होगा। वाकई काबिले तारीफ है।
    साभार
    अजय कुमार झा

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  15. बड़ा ही सार्थक और समसामयिक प्रश्न उठाती हुई रचना।

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  16. वाह चंदन जी
    काश आपके जैसे संकल्‍प की भावना अन्‍य मानव जाति में जाग जाती। आपकी यह कल्‍पना वाकई लाजवाब है। मैं दावा करता हूं जो भी मानव इस कविता को पढेगा वह एक बार सोचने को जरूर विवश होगा कि अंहकार रूपी राक्षस किस तरह दिन व दिन मानव को खोखला करता जा रहा है। वाह वाह वाह इसके लिए जितना कहूं कम है।

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  17. vastav me kavita bahut hi dil ko chune wali he
    in kam pantiyo me gagr me sagar bhar diya ye sam aachary vidhasagar ji mahara ke mukmati jese mahakvay se mailti he

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