सोमवार, 30 मार्च 2009

मेरी अभिलाषा

अभिलाषा है ऊपर उठने की मुझे
पर इतना नहीं कि झुक न सकूं
इतना न झुकूं कि उठ न सकूं।

उठने के नशे में कुचल दूं
उस लता को
जो चाहती है उपर उठना
अपना विकास करना
दुख दर्द कष्ट
किसी का बांटना।

ऐ मेरे ईश्वर
मैं उस लता को भी उपर
उठने दे सकूं
उसे भी अपना विकास
करने दे सकूं।

पतझर गर्मी वर्षा
है मेरे जीवन में भरे हुए
राह राह पर कांटे चुभते हैं
कांटे चुभते हैं ?
चुभने दो उन्हें।

चुभन है ज़िन्दगी चुभन को झेलो
अपने संग सबको विकास के पथ पर ले लो।

अभिलाषा है कि सबको संग ले कर चलूं
इस पथ पर कभी न डरूं।

अभिलाषा है उपर उठने की मुझे
पर इतना नहीं कि झुक न सकूं
इतना न झुकूं कि उठ न सकूं।

अभिलाषा है उपर उठने की मुझे। 


(16 सितम्बर 1999) 

4 टिप्‍पणियां:

  1. अभिलाषा है उपर उठने की मुझे
    पर इतना नहीं कि झुक न सकूं
    इतना न झुकूं कि उठ न सकूं।
    बहुत बढिया विचार ... बहुत सुंदर रचना ... बधाई।

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  2. Awesome lines.
    Keep it up man.

    Cheers!!

    Have a wonderful evening. :)

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  3. bahut hi sundar ,vicharo ki sasakth aur bhavpurn abhivaykti ..


    mujhe bhi kuch yaad aaya hai ..
    wah dana
    kichar main feka,
    kheto main boya ,
    gangajal main gira,
    ya naale main para
    sabme uga wah dana

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  4. लचीले बनो मेरे मित्र!
    जितने अधिक लचीले बनोगे,
    उतने ज़्यादा समय तक चलोगे!

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