शनिवार, 29 अगस्त 2009

केरल, ओणम का त्योहार और महाबली

king-mahabali-onam-two केरल आकर पढ़ने का सबसे बड़ा फायदा मुझे यह हुआ कि यहाँ के बारे में जानने का भरपूर मौका मिला I हाँ ‌ यह अलग बात है कि अभी तक यहाँ की भाषा मलयालम नहीं सीख पाया, पर प्रयास जारी है I सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक दृष्टिकोण से केरल बहुत ही धनी राज्य है I शायद इसलिये केरल को ईश्वर का अपना देश (God’s own country) कहते है I यहां के सभी त्योहार एवं उत्सव अपने विविधतापूर्ण रंगों के लिये विख्यात है I ओणम केरल का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण पर्व है I ओणम का त्योहार अपने वैभवकारी अतीत, धर्म एवं आस्था, तथा अराधना की शक्ति में विश्वास को दर्शाता है I हरेक जाति एवं धर्म के लोग इस  शस्योत्सव को अति श्रद्धा एवं उल्लास से मनाते हैI दंत कथाओ के अनुसार यह त्योहार राजा महाबली  के स्वागत में मनाया जाता है जो की  इसी ओणम के महिने में प्रत्येक वर्ष केरल की भूमि पर भ्रमण करने आते है I

 

                                                           (गजनृत्य)

                                                        (पुलिकाली- बाघ नृत्य)

                           (संर्प नौका प्रतियोगिता)

ओणम का त्योहार मलयालम कैलेंडर (कोलवर्षम) के प्रथम महिने चिंगम में मनाया जाता है I चिंगम अंग्रेजी के महिने अगस्त-सितम्बर के समतुल्य होता है I दशहरा की तरह ओणम भी दस दिनों तक मनाया जाने  वाला पर्व है I इन दस दिनों में प्रथम दिवस अथम और दशम दिवस थिरुओणम सबसे महत्वपूर्ण होता है I सांस्कृतिक रूप से इतना धनी होने के कारण ही ओणम उत्सव को वर्ष १९६१ में केरल का राज्यकीय त्योहार घोषित कर दिया गया I उत्कृष्त भोजन, मनभावन लोकगीत, गजनृत्य (हाथियों द्वारा किया गया नृत्य), उर्जापूर्ण खेल-कूद, नाव और फूल ये सब मिलकर इस त्योहार को मनमोहक रूप प्रदान करते है I अन्तरराष्ट्रिय स्तर पर ख्याति प्राप्त होने के कारण ही भारत सरकार द्वारा ओनम पर्व को पर्यटन सप्ताह घोषित किया जाता है I  इस दौरान हजारों सैलानी पर्यटन के लिये केरल आते है I 

आज से दस दिनों के लिये महाविद्यालय बन्द हो गया है I अतः कल (शुक्रवार) को हमारे कालेज में ओणम का त्योहार हर्षोउल्लास से मनाया गया I नीचे कुछ चित्र दे रहा हूँ I कुछ मित्रों ने मिलकर विडियो भी बनाया है, एडिट करने के बाद उसे भी पोस्ट करुंगा I

                     (ढोलक की थाप पर नृत्य)

                                                                                       (थिरकते कदम)

        (पोकालम)

                    (पोकालम- फूल प्रतियोगिता)

                                                            (ओणम में पहने जाने वाला पारंपरिक वस्त्र)

भारत मे कोई भी त्योहार हो और खाद्य सामाग्री यथा पकवान, मिठाई,  और स्वादिष्ट भोजन की बात न हो तो बात कुछ अटपटी सी लगती है I इस मामले में ओणम भी अन्य त्योहारो से अलग नहीं है I ओणसद्या के बिना ओणम पर्व की बात अधूरी लगती है I ओणसद्या एक पारंपरिक भोजन है I अमीर हो या गरीब सभी के लिये यह बहुत ही महत्वपूर्ण है I मलयालम में एक कहावत है- कानम विट्टम ओणम उन्ननम अर्थात एक ओणम सद्या के लिये लोग अपनी किसी भी वस्तु को बेचने के लिये तैयार हो जाते है I ओणसद्या दक्षिण भारतीय भोजन का एक उत्कृष्ट उदाहरण है I सद्या केले के पत्ते पर परोसा जाता है I कभी ओणसद्या में चौसठ तरह के पदार्थ परोसे जाते थे, पर आजकल कुल मिलाकर ग्यारह तरह की वस्तुयें हीं परोसी जाती है I             

                           (ओणसद्या)

 

पोस्ट कुछ लम्बी खिंच गयी. एक ही पोस्ट में इतनी सारी बाते समाहित करना कठिन है. जो भी बाते बची रह गयी अगली पोस्ट में.

 

(आज रात में कुछ मित्रों के साथ तिरुपती – बालाजी के लिये निकल रहा हूँ. केरल में अब कुछ ही महीनें  बचे है, तो क्यों न दक्षिण भारत के कुछ महत्वपूर्ण स्थल घूम लिये जाय)

 

                                                          (कुछ चित्र गूगल सर्च से साभार)

शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

मुक्ति का मार्ग

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 (संत तिरुवल्लुवर की प्रतिमा और विवेकानंद रॉक मेमोरियल, पीछे से सुर्योदय का दॄश्य)

 

 

खरीददार हूं मैं,

खरीदता हूँ मैं,

सबकुछ,

तुम्हारी,

आत्मा, शरीर, मन ।

 

मैं खरीदता हूँ,

समय और आकाश,

ताकि तुम,

पहुँच न सको,

अपनी उर्जा के स्रोत तक ।

 

क्या बेचोगे,

अपने आप को तुम ?

जो भी मूल्य लगाओ,

मैं खरीद लेता हूँ ।

 

मैं खरीदता हूँ,

ताकि तुम देख न सको,

अपनी आँखो में छिपे हुये,

कुछ निशान ।

क्या कोई देख सकता है,

स्वंय अपनी आँखो में ।

 

सदियों पहले तुमनें बेचा था,

स्वंय को,

मेरे हाथो,

ताकि बची रह सके,

तुम्हारी आने वाली पीढ़ी ।

पीढ़ी - दर - पीढ़ी,

न जाने कब से,

यही चलता आया है ।

 

ढूँढ रहे हो युगों से,

तुम मुझे,

कि,

अगर मैं मिल जाऊं,

तो अपना मूल्य,

वापस कर सको मुझे.

पा सको,

अपनी मुक्ति,

मुझसे ।

 

अब तक तो तुम,

भूल भी चुके हो,

कि बिके हुये हो

तुम ।

कैसे ढूँढोगे अपनी,

मुक्ति का मार्ग ?

 

मुझे पता है,

सबकुछ पता है ।

पर,

नहीं बता सकता मैं ।

 

युगों युगों से,

ढूँढ रहा हूँ,

मैं भी,

अपनी मुक्ति का मार्ग ।

शायद मैं तुम्हारा ईश्वर हूँ,

या तुम मेरे I

 

 

(आज उड़न तश्तरी पर आदरणीय समीर लाल जी की पोस्ट पढी "कैसा ये कहर!" । सोचा क्यों न मैं भी विंडोज़ लाईव राइटर पर लिखने का प्रयास करुं। वाकई में ब्लाग लेखन के लिये यह बहुत हीं मजेदार और सुविधाजनक औजार है। उन्हीं के शब्दो में भूल चूक लेनी देनी।)

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

रे मानव कब तक तू निज को अहं की बलि चढ़ायेगा




कर दो बन्द मुख द्वंद का,
अब सहा नहीं जाता।
थक गया हूँ,
चूर - चूर हो गया हूँ,
अब रहा नहीं जाता।


भागता रहा वर्षो तक,
इस काली रेखा के पीछे,
जब आँख खुली मेरी,
बचे थे हाथों में मेरे,
चंद रेत के कण।


निशाचर बना,
पिचाश बना,
अपनी अग्नि से,
सबको जलाया,
मानवता कराह उठी।


मैं खुश हुआ,
इसलिये कि,
रक्त बह गया है,
आग जल गया है।


पर मिला क्या मुझे,
आज स्वंय इस आग में,
जल रहा हूँ।


शपथ लेता हूँ मैं,
अब युद्ध न होने दूँगा,
शपथ लेता हूँ मैं,
निज रक्त का कण - कण बहा दूँगा।


अब झुक सकता नहीं,
अब रुक सकता नहीं,
विश्वास नया जग गया,
उमंग नया भर गया।


जगह नहीं हृदय में,
द्वेष का द्वंद का,
कलह का,
दुर्गन्ध का।


विचार नया रचित हुआ,
पर्ण नया पल्लवित हुआ
कुविचार अब समाज का,
क्षणों में विघटित हुआ।


समता का बीज बो,
विकास की ओर बढे़,
भुजाओं में शक्ति है,
सौंदर्यमय सृष्टि रचे।


रे मानव कब नवगीत तू गायेगा,
रे मानव कब तक तू निज को ,
अहं की बलि चढ़ायेगा।


(२००१)



गुरुवार, 20 अगस्त 2009

परिवर्तन














रोका था,
तुमनें मुझे

जब मैनें,
कोशिश की थी,
रोने की

कहा था तुमनें,
मत बर्बाद करो,
इन आँसुओ को,
मेरे लिये

बचाकर भी नहीं,
रख पाया था,
मैनें इन्हें

खर्च कर दिये थे,
सारे के सारे

अब,
जबकी तुम नहीं हो,
नहीं भींग पाती है,
मेरी आखें

बहुत ,
कोशिश करने के,
बाद भी




(चित्र साभार- अरुण कुमार)



मंगलवार, 18 अगस्त 2009

मैनें उसको देखा पथ पर







मैनें उसको देखा पथ पर,
लुढ़का पड़ा था नाली पर,
कपड़े थे उसके तितर-बितर,
पर..............................


ध्यान न गया किसी का उसपर,
कवियों की कलमें टूट गयी पर,
रंग डाले सारे पन्ने पर,
पर.......................


नजर न डाली किसी ने उसपर,
पड़ा रहा उसी भाँति वह पथ पर,
उसकी हालत थी अब बदतर,
पर...............................


झपट पड़ा कुत्ता भी उसपर,
ले गया आधा वह भी बांटकर,
शांत रहा वह आधे पेट का आधा भरकर,
पर............................................


अपनी गुदड़ी में घुसकर,
रात बितायी ठिठुर - ठिठुर कर,
सुबह चला फिर अपने पथ पर,
पर................................


(२९ दिसम्बर १९९९)


(चित्र साभार- गूगल सर्च)