रविवार, 6 दिसंबर 2009

निर्माण

 

मैं कह देता हूँनिर्माण

अपनी बात ।

जब भी मन करता है

कह देता हूँ ।

 

मैं नहीं जानता कि

तुम तक

पहुँच भी पाती है

मेरी आवाज या नहीं  ।

फिर भी

चुप नहीं रह पाता मैं ।

 

मुझे पता है कि

मेरी आवाज बहुत धीमी है ।

मुझे पता है कि

जब भी बोलता हूँ

शब्द लड़खड़ा जाते है मेरे ।

 

पर क्या

इसलिये मैं चुप हो जाऊँ

कि मैं दहाड़ नहीं सकता ।

मैं चढ़ नहीं सकता पहाड़ों पर

तो क्या ?

 

मैं बहता रहूँगा नदियों में

कल-कल की ध्वनि बनकर

जो उतरकर आती है

इन्हीं पहाड़ों से ।

 

मेरे विचारों पर

खामोशी की परत

जरूर चढ़ी है

पर मैं इन्हें बदल दूँगा

वक्त की ऊर्जा में ।

 

जब भी मैं चुप होता हूँ

बहुत करीब हो जाता हूँ

तुमसे !!!

आओ निर्माण करें ।

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

तुम्हारी प्रतीक्षा में

 

मैं नहीं कहताfallen flower

कि तुम्हारे लिये

ले आऊँगा तोड़कर

चाँद तारे ।

मैं नहीं कहता

कि तुम्हारे लिये

बना दूँगा पहाड़ को धूल

और

झुका दूँगा आसमान को

जमीन पर ।

मैं तो बस ला पाऊँगा

तुम्हारे लिये

ओस में लिपटे

धूल से सने

डाली से गिरे

कुछ फूल

जिनमें अभी भी बांकी है सुगंध ।

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

न जाने क्यों

तुम्हारी गीली खुशबूDSC01495

भरती गयी

अन्दर तक

मेरे फेफड़ों में ।

विसरित होती गयी

धमनियों में ।

न जाने क्यों

बहुत हीं तकलीफ़ होती है

आजकल

सांस लेने में ।

आदमी इतनी आसानी से

मरता भी क्यों नहीं ।

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

प्रेत

विक्षिप्त सा जीता हूँDSC01467

एक ठण्डी सी जिन्दगी

और मर जाता हूँ चुपचाप ।

होता है इतना

सघन अँधेरा

कि भटकती रहती है

मेरी आत्मा

तुम्हारी तलाश में

शुरू से अंत तक ।

मंगलवार, 24 नवंबर 2009

आधुनिकता बनाम प्रकृति

आज एक पुरानी कविता प्रस्तुत कर रह हूँ । इस अनगढ़ सी कविता की रचना उस समय की थी जब मैं दसवीं की कक्षा में था ।

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हाय विधाता !!!!!

यह क्या ?

अपनों-अपनों के बीच रण,

दुर्भाग्य हीं है यह मनुष्य का,

उसने हीं तोड़े प्रकृति के सारे नियम ।

 

अपने स्वार्थ के लिये,

रण करता है वह बार-बार ।

क्या होगा इस सृष्टि का,

होता है आज भाई-भाई के बीच वार ।

 

अपने स्वार्थ के लिये,search

खो देता है वह नीति न्याय,

करता है रण वह दिन-रात,

जब तक न बुझे उसकी प्यास ।

 

हो जाता है वह,

अपनों के रक्त का प्यासा ।

पर क्षुधा शांत नहीं होती उसकी,

इतने से-

वह महाप्रलय को लाता है,

वह महाकाल बन जाता है  ।

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माता-पिता, भाई बन्धु ,

सभी को खा जाता है ।

अपनी भूख मिटाने के लिये,

वह क्या नहीं कर जाता है ।

मर जाता है, मार देता है,

मरकर भी शांत न होता है ।

करके जाता है वह,

विनाश के साधन को तैयार ।

जो पल भर में, मचा देता है,

सृष्टि में हाहाकार ।2005-04-10-1920x1200

 

बम के एक धमाके से,

लाखों की जान चली जाती है ।

कौवें गिद्ध झपट पड़ते है,

लाखों सड़े-गले लाशों पर ।

 

मानव के इस क्रूर कर्म से,

प्रकृति घबरा जाती है,

अपना संतुलन खो जाती है ।three-mile-island

नहीं क्षमा करती वह मानव को,

विकराल रूप धारण कर,

अट्टाहस करके आती है,

वह महाप्रलय को लाती है ।

और फिर अब-

लाखों की जान चली जाती है ।

प्रकृति से जब-जब खिलवाड़ करता मानव,

तब-तब वह घोर बबंडर लाती है ।

 

आज मानव प्रकृति को देता है नकार,

विनाश के साधन को करता है तैयार,

जो पल भर में मचाता है,

पृथ्वी पर क्रूर हाहाकार ।

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क्यों प्रकृति के प्रति इतना विकर्षण ?

क्यों आधुनिकरण के प्रति इतना लगाव ?

 

मानव –मानव में प्रेम सदा,

करता है मानवता का विकास ।

दुर्भाग्य नहीं सौभाग्य है यह,

जब मानव करता अपना चरम विकास ।

पर रहे ध्यान सदा इसका,

इस विकास के नशे में,

हो न प्रकृति का नाश ।2005-05-13-1920x1200

वरन होगा अगर प्रकृति का नाश,

तो एक न एक दिन -

अवश्य हो जायेगा मानव सभ्यता का सर्वनाश ।।

 

(7 सितम्बर 1999)