दीदी समता की एक रचना-
बगैर आँसू के जो गुलशन हरा न हो,
भला क्या वास्ता हो उस हरियाली से ।
वो आईना धुँधला ही पर जाये तो बेहतर हो
जो खौफ़ का समां बना दे अपनी सफ़ेदगी से ।
बहुत चाहा, बहुत समझा अपना जिसे,
कैसे नवाज दूँ उसे शब्द अजनबी से ।
तेरी फुरकत में नज़र न आये अपनी भी सूरत,
यही वज़ह है कि मैं बचती फिरती हूँ रौशनी से ।
अगर सँवरते हो सिर्फ़ मेरे लिये तो सँवरना छोड़ दो
क्योंकि मुझे तो मुहब्ब्त है बस तेरी सादगी से ।
जब भी मिलते हो तुम दर्द दिल बयां करते हो
मैं हीं तंग आ चुकी हूँ मुहब्बत की राजगी से ।
मेरी गुस्ताखी के बदले अपनों की तरह शिकायत कर दो,
क्योंकि मैं घबड़ा जाती हूँ तेरी नाराजगी से ।
-(समता झा)