सब चुप थे ।
कहीं बूँद गिरी थी
बादल पिघले थे ।
चुप चाप खड़ा
सहमा सा था ।
न जाने कब से
खुद से ही
मैं भाग रहा था ।
मैनें देखा नहीं है,
उगते हुए सूरज को वर्षों से ।
छिपकर बैठा है,
प्राचीन शैतान !!!
कोशिश करता हूं जब भी…
कि अपनी आंखे खोलूं,
नींद में डूब जाता हूं मैं ।
देखता हूं जब भी,
दूर से आते हुए प्रकाश को,
और फ़िर,
विकृत और सिमटते हुए प्रतिबिंब को,
सच की तलाश में जुट जाता हूं मैं ।
मेरी तरह,
कई लोगो नें,
देखा नहीं है उगते हुए सूरज को,
वर्षो से ।
और हम मान बैठे है….
हमें बचा लिया जायेगा ।
आह !!!
कैसा है यह दुःसाहस,
देखता हूँ मुड़कर मैं,
अपने अतीत के उस खण्डहर को,
अपने आँगन में,
सर झुकाए मैं खड़ा था ।
टूट रहा था विश्वास,
खत्म हो रहे थे सारे सम्बन्ध,
मेरे मन के उस आँगन में ।
और
मिट चुकी थी
भविष्य की रेखाऐं
मेरे छोटे-छोटे हाथों से ।
मुझे याद नहीं,
माँ का आँचल
जहां मैं अपने आँसू पोछ सकता ।
मुझे अब याद नहीं,
पिता का नर्म स्पर्श ।
मेरा बचपन,
टूट रहा था ।
और मैं-
सर झुकाए आज भी खड़ा हूँ
अतीत के उस आँगन में ।
खाली रह जाता हूँ मैं,
बार-बार ।
जितना भी तुम भरती हो,
मैं खाली होता जाता हूँ ।
तरल होता जाता हूँ,
पल-पल,
हमेशा,
मैं ठोस होने की कोशिश में ।