बुधवार, 6 मई 2009

कर्म का महत्व

रुको नहीं, थको नहीं,
रुकना नहीं कर्म है,
थकना नहीं धर्म है

चलते रहो चलते रहो,
चलना हीं तो कर्म है



रवि रुक जाये अगर,
प्रकृति में हो जाये प्रलय

चाहते हो अगर जीतना तो,
समझो कर्म के महत्व को



कर्म हीं है जिन्दगी,
मानवता कर्म है,
मातृत्व हीं तो कर्म है,
भक्तित्व हीं तो कर्म है



कर्म से डरो नहीं,
कर्म से भागो नहीं,
कर्म तुम्हें पहुँचायेगा,
परम लक्ष्य की सीमा तक



सत्य है असत्य है,
सत्य को चुन लो तुम,
सत्य को थामे रहो,
कर्म हीं पहुँचायेगा तुम्हें,
सत्य की राह पर



अराधना हीं कर्म है,
साधना हीं कर्म है,
पवित्र मन, सत्य वचन,
सच्ची श्रद्धा,हृदय से निष्ठा,
कर्म का मूलमंत्र है


कर्म देश भक्ति है,
कर्म हीं तो शक्ति है,
कर्म का भविष्य है,
निश्वार्थ भाव से,
कर्म करो,कर्म करो


(20 जुलाई 1999)




मैं भूल चुका हूँ

जब मैं,
पटना में रहता था,
तब मुझे,
रोटीयाँ स्वंय ही बनानी पड़ती थी,
ये रोटीयाँ,
कभी गोल बन जाती थी,
और कभी टेढी-मेढी,
पर मुझे पैसे नहीं देने पड़ते थे,
अब मुझे,
रोटीयाँ नहीं बनानी पड़ती है,
पर मुझे पैसे देने पड़ते है.
चाहे रोटीयाँ गोल हो,
चाहे टेढी,
मैं पैसे चुकाता हूँ,
क्योंकी कुछ बाते पीछे रह गयी है।
अब मैं,
रोटीयाँ बनाना भूल चुका हूँ,
और पता नहीं,
और क्या क्या भूलने वाला हूँ।

रविवार, 3 मई 2009

एक सैनिक का आत्म कथ्य


मेरी आँखो मे बिजलीयाँ कौंध जाती है

आंधीयाँ जब जब तूफान बन आती है।

तूफान जब जब विनाश बन आता है,
मेरे बाजुओं मे अपार शक्ति भर जाता है।






मेरा पग पल पल मृत्यु की तरफ बढता जा रहा है,
अब तो रक्त बहाने का समय भी आता जा रहा है।




इस मिट्टी को रक्त से लाल कर दूंगा,

दुश्मनों के लिये रक्त का समुद्र खडा कर दूंगा।

वह शक्ति है भुजाओं में जो पहाड़ो को भी धूल बना दे।


वह विश्वास है हृदय में जो पत्थरों को भी मोम कर दे।




है कोई मझधार नहीं, जो मुझको डुबो सके।

है कोइ दीवार नहीं, जो मुझको रोक सके।

है कोई ऊँचाई नहीं, जिसे मैं छू न सकूं।

है कोई गहराई नहीं, जिसमें मैं डूब सकूं।




तनहाईयों में जीकर जीतने की चाहत है मुझमें,
गोलियां पीठ पर नहीं,
ीने पर खाकर मरने की आदत है मुझमें।

दुश्मनों की गोलियों को प्रेमी समझ सीने से लगाता हूं,
भूख को प्रेम विरह समझ अपनाता हूं,
बन्दूकें मेरे हाथों में, उसके हाथ होने का एहसास दिलाता है,
इससे निकली गोलियाँ, हृदय को सुकून दिलाता है।




प्रलय में पले हुए है, विनाश में बढे हुए है।

सुबह हो या शाम हो, शीत हो या घाम हो।

मिट्टी ने विकास किया, अग्नि ने प्रकाश दिया।

बाधाओं ने हीं हमें बढने का एहसास दिया।



सर
पे कफ़न बांध कली की तरह ईठलाता हूँ,
जब मरता हूँ तो फूल की तरह खिल जाता हूँ।

जब मेरे शरीर के टुकड़े धरती पर फैल जाते है,
स्वंय को मां के चरणों में न्योछावर पाता हूँ।




मृत्यु के समीप हूँ, घायल हूँ मृत हूँ।

पैर रुक गये है मेरे हाथ झुक गये है मेरे।

रुक गयी क्यों हो मेरे धर की गति।

एक इच्छा हॄदय में है प्राप्त करुं वीरगति।




हिम की बरसात हो या रेत का तूफान हो।

काटों की चुभन हो या विषों का उफान हो।

विधाता से एक यही प्रार्थना है,
तब भी मेरे मुख पर अविचल मुस्कन हो।





(31 जुलाई 2000)


मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

क्योंकि मैं मजदूर हूँ

मैं मजदूर हूँ।

देखो न,
मेरे हाथ घिसे-पिटे है।

कहते है भाग्यवादी,
हस्तरेखायें बनाती है भाग्य को।
मेरे भाग्य कौन बनायेगा,
देखो न मिट गयी है रेखायें,
हाथों के ही रगड़ से।

मुझको कौन शराब देगा,
अपने ही दुख को,
शराब समझ पी लेता हूँ।

नशे में हूँ इस कदर,
न होश है इधर का,
न होश है उधर का।

कौन मुझको रंग देगा ?
अपने ही रक्त से,
सबको मैं रंगमय कर दूं।

केश मेरे उलझे हुए है,
कौन इसे सँवारेगा,
कब्र में पड़ हूँ मैं,
कौन मुझे नवजीवन देगा,
अपने ही स्वेदकणों से,
सृष्टी रचता हूँ मैं।

मित्र सच्चा कौन है मेरा,
साथ दिया सबने सुख में,
पुर्णिमा गयी,
देखो न अमावस्या आ गयी,
अब सबने विदा लिया।

कहते है बहुत लोग,
मजदूरों की दशा कुछ हुइ ठीक,
क्या खाख दशा हुइ ठीक,
मुझको पढाने के लिये,
उपक्रम रचते है,
"अ-आ" मैंने सीख लिया,
क्या हो गयी पढाई ?

मुझको इतना गड़ा दिया,
इस दलदल में,
कि निकलते निकलते,
वर्षों निकल जायेगें।

कौन मुझे निकालेगा ?
कौन मुझे निकालेगा ?
क्योंकि मै मजदूर हूँ ।

(19 दिसम्बर 1999)

 

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

अपराजेय हो जाओगे

देखो,
दूब को।

कुचली जाती है,
रौंदी जाती है,
पर फिर भी बढती है,
आगे चढती है।
रेंग-रेंग कर,
मिट्टी को अपनी भुजाओ में,
देखो, कैसे जकड़ती है।

कड़ी दुपहरी सिखलाती इसको,
सहो सुर्य के प्रचण्ड धूप को।
फिर झूम-झूम कर वर्षा आती है,
इसको जल से तृप्त करती।
रग-रग में दौड़ जाता है,
जीवन द्रव्य।
होता है फिर,
विद्युत संचार।

फिर हुंकार भरती है,
अपरिमित आशाओं के साथ,
आगे बढते जाती है।

देखो,
निर्मम खुर के तले,
कैसे कुचली जाती है।
सहती सब कुछ,
भार टनों का,
जल जाती है,
सड़ जाती है,
जड़ उखाड़ फेकी जाती है।
फिर भी यह न थकती है,
जहां जाती है,
वहीं बढती है
देखो कभी न रुकती है।
हरी रंग है, हरी दिशायें,
अपराजेय है, दूब हरी है।

देखो,
जब चढती है दूब,
ईश्वर के चरणों में,
परम पवित्र कहलाती है।
बन सकते हो, बनो दूब तुम,
अगर दूब बन जाओगे,
अपराजेय हो जाओगे। 


(25 जनवरी 2000)