बुधवार, 17 मार्च 2010

सुबह तक

सुबह तक मुझे पसंद नहीं

सूरज का डूबना ।

न जाने कौन सी

एक आग

अन्दर हीं अन्दर

जलती रहती है ।

कण- कण

पिघलता जाता हूँ

सुबह तक

कहाँ बच पाता हूँ । 

सोमवार, 15 मार्च 2010

क्योंकि मैं घबड़ा जाती हूँ तेरी नाराजगी से

दीदी समता की एक रचना-

बगैर आँसू के जो गुलशन हरा न हो,CACLSFCV
भला क्या वास्ता हो उस हरियाली से ।

वो आईना धुँधला ही पर जाये तो बेहतर हो
जो खौफ़ का समां बना दे अपनी सफ़ेदगी से ।

बहुत चाहा, बहुत समझा अपना जिसे,
कैसे नवाज दूँ उसे शब्द अजनबी से ।

तेरी फुरकत में नज़र न आये अपनी भी सूरत,
यही वज़ह है कि मैं बचती फिरती हूँ रौशनी से ।

अगर सँवरते हो सिर्फ़ मेरे लिये तो सँवरना छोड़ दो
क्योंकि मुझे तो मुहब्ब्त है बस तेरी सादगी से ।

जब भी मिलते हो तुम दर्द दिल बयां करते हो
मैं हीं तंग आ चुकी हूँ मुहब्बत की राजगी से ।

मेरी गुस्ताखी के बदले अपनों की तरह शिकायत कर दो,
क्योंकि मैं घबड़ा जाती हूँ तेरी नाराजगी से ।

-(समता झा)

गुरुवार, 11 मार्च 2010

जाल (Trapped)

कॉलेज के कुछ दोस्तों ने मिलकर ५ मिनट की एक छोटी सी फ़िल्म “TRAPPED” बनाई थी । यह उनका पहला प्रयास था ।  बिना संवाद वाले इस फ़िल्म में दिखाया गया है कि किस तरह एक छात्र गलत संगत में पड़कर, अपना जीवन बर्बाद कर लेता है ।

 

 

और हाँ लगे हाथ मैने भी अभिनय में अपना हाथ आज़मा लिया है । बताईये कैसी लगी यह फ़िल्म ? 

सोमवार, 8 मार्च 2010

एक स्तब्ध पेड़

दीदी “समता” की एक रचना-

 

एक स्तब्ध पेड़

पतझड़ सी भंगिमा लिये

एक स्तब्ध पेड़ ।

उसकी निस्तब्धता विच्छिन्न क्यों ?

शायद देखता है,

अपने साथियों को,

सावन आने की खुशी में,

खिलते हुऐ ,

हरियाली दिखाते हुऐ ।

मगर वह क्यों वंचित है,

इन खुशियों से ?

प्रकृति नहीं जानता,

भेद भाव का नियम ।

शायद जानता है कि

छिन्न होने वाले सारे

फेंक आये है अपनी कांति को,

अपने ही हाथों से ।

अविच्छिन्नता पसन्द है इसको,

चाहे अवांछित ही क्यों न हो,

पर इसका एहसास,

कहाँ है इसको ।

शायद यह खुश है कि

हमारे सफर की दूरी छोटी है ।

 

-(समता झा) 

गुरुवार, 4 मार्च 2010

पतझड़

इतने वर्षों के बाद,

मिली तुम आज, इस तरह,

सोचा, खेलूँगा तुम्हारे संग होली,

लगा दूंगा, थोड़ा सा गुलाल,

तुम्हारे गालों पर,

कुछ रंग जा बसेंगे,

तुम्हारी माँग में ।

ढ़ूंढ़ा अपनी पोटली में,

पर रंग कहाँ बचे थे वहाँ ।

शायद पुराने बक्शे में हो,

पर सबकुछ तो,

साथ ले गयी थी तुम ।

बचा क्या रह गया था,

मेरे पास ।

हाँ याद आया,

तुम्हारे जाने के बाद,

अलमारी में पड़ी,

तुम्हारी सिन्दूर की डिब्बी,

फेंक आया था,

पास के तालाब में ।

आज तक सूखी नहीं यह तालाब,

बस मैं हीं पतझड़ हो गया ।