कल मेरे गांव में कुछ बन्दर आये थे।
कुछ ने रंग बिरंगी टोपियां पहन रखी थी,
कुछ ने चमकदार घड़िया,
और कुछ पहने हुए थे
काफी चुस्त पतलून।
अपने स्वभाव के विपरीत
वे बहुत शांत दिख रहे थे।
मैंने उन तीन ऐतिहासिक बन्दरों को
पहचानने की बहुत कोशिश की,
क्योंकी भविष्यवाणी हुई थी ,
वे तीन बन्दर फिर से अवतार लेंगे।
झुंड में एक ऐसा बन्दर भी था,
जो थोड़ा अलग दिख रहा था।
पूछ ताछ के बाद पता चला कि यह बन्दर,
गूंगा, बहरा और अन्धा है।
पर आश्चर्य की बात,
यह अपाहिज बन्दर उस दल का नेता था।
जब मैंने कोशिश की,
इस बन्दर के पास जाने की,
तीन बन्दरो ने मेरा रास्ता रोक लिया।
पहले ने दूसरे को इशारा किया
दूसरे ने मेरे दोनों गालो पर
दो जोड़दार थप्पर जड़ दिये।
अपना दूसरा गाल बढाने का
मौका तक नहीं दिया।
तीसरे ने अपने चमकदार,
दूध की तरह सफ़ेद दांत दिखला दिये।
शायद किसी मंहगे टूथपेस्ट से ,
मुंह धोता होगा वह।
ये तीन बन्दर,
उस अपाहिज बन्दर के अंगरक्षक थे।
और शायद तीन अवतार भी।
मंगलवार, 30 जून 2009
रविवार, 10 मई 2009
रेगिस्तान
बुधवार, 6 मई 2009
कर्म का महत्व
रुको नहीं, थको नहीं,
रुकना नहीं कर्म है,
थकना नहीं धर्म है।
चलते रहो चलते रहो,
चलना हीं तो कर्म है।
रवि रुक जाये अगर,
प्रकृति में हो जाये प्रलय।
चाहते हो अगर जीतना तो,
समझो कर्म के महत्व को।
कर्म हीं है जिन्दगी,
मानवता कर्म है,
मातृत्व हीं तो कर्म है,
भक्तित्व हीं तो कर्म है।
कर्म से डरो नहीं,
कर्म से भागो नहीं,
कर्म तुम्हें पहुँचायेगा,
परम लक्ष्य की सीमा तक।
सत्य है असत्य है,
सत्य को चुन लो तुम,
सत्य को थामे रहो,
कर्म हीं पहुँचायेगा तुम्हें,
सत्य की राह पर।
अराधना हीं कर्म है,
साधना हीं कर्म है,
पवित्र मन, सत्य वचन,
सच्ची श्रद्धा,हृदय से निष्ठा,
कर्म का मूलमंत्र है।
कर्म देश भक्ति है,
कर्म हीं तो शक्ति है,
कर्म का भविष्य है,
निश्वार्थ भाव से,
कर्म करो,कर्म करो।
(20 जुलाई 1999)
रुकना नहीं कर्म है,
थकना नहीं धर्म है।
चलते रहो चलते रहो,
चलना हीं तो कर्म है।
रवि रुक जाये अगर,
प्रकृति में हो जाये प्रलय।
चाहते हो अगर जीतना तो,
समझो कर्म के महत्व को।
कर्म हीं है जिन्दगी,
मानवता कर्म है,
मातृत्व हीं तो कर्म है,
भक्तित्व हीं तो कर्म है।
कर्म से डरो नहीं,
कर्म से भागो नहीं,
कर्म तुम्हें पहुँचायेगा,
परम लक्ष्य की सीमा तक।
सत्य है असत्य है,
सत्य को चुन लो तुम,
सत्य को थामे रहो,
कर्म हीं पहुँचायेगा तुम्हें,
सत्य की राह पर।
अराधना हीं कर्म है,
साधना हीं कर्म है,
पवित्र मन, सत्य वचन,
सच्ची श्रद्धा,हृदय से निष्ठा,
कर्म का मूलमंत्र है।
कर्म देश भक्ति है,
कर्म हीं तो शक्ति है,
कर्म का भविष्य है,
निश्वार्थ भाव से,
कर्म करो,कर्म करो।
(20 जुलाई 1999)
मैं भूल चुका हूँ
जब मैं,
पटना में रहता था,
तब मुझे,
रोटीयाँ स्वंय ही बनानी पड़ती थी,
ये रोटीयाँ,
कभी गोल बन जाती थी,
और कभी टेढी-मेढी,
पर मुझे पैसे नहीं देने पड़ते थे,
अब मुझे,
रोटीयाँ नहीं बनानी पड़ती है,
पर मुझे पैसे देने पड़ते है.
चाहे रोटीयाँ गोल हो,
चाहे टेढी,
मैं पैसे चुकाता हूँ,
क्योंकी कुछ बाते पीछे रह गयी है।
अब मैं,
रोटीयाँ बनाना भूल चुका हूँ,
और पता नहीं,
और क्या क्या भूलने वाला हूँ।
पटना में रहता था,
तब मुझे,
रोटीयाँ स्वंय ही बनानी पड़ती थी,
ये रोटीयाँ,
कभी गोल बन जाती थी,
और कभी टेढी-मेढी,
पर मुझे पैसे नहीं देने पड़ते थे,
अब मुझे,
रोटीयाँ नहीं बनानी पड़ती है,
पर मुझे पैसे देने पड़ते है.
चाहे रोटीयाँ गोल हो,
चाहे टेढी,
मैं पैसे चुकाता हूँ,
क्योंकी कुछ बाते पीछे रह गयी है।
अब मैं,
रोटीयाँ बनाना भूल चुका हूँ,
और पता नहीं,
और क्या क्या भूलने वाला हूँ।
रविवार, 3 मई 2009
एक सैनिक का आत्म कथ्य
मेरी आँखो मे बिजलीयाँ कौंध जाती है
आंधीयाँ जब जब तूफान बन आती है।
तूफान जब जब विनाश बन आता है,
मेरे बाजुओं मे अपार शक्ति भर जाता है।
मेरा पग पल पल मृत्यु की तरफ बढता जा रहा है,
अब तो रक्त बहाने का समय भी आता जा रहा है।
इस मिट्टी को रक्त से लाल कर दूंगा,
दुश्मनों के लिये रक्त का समुद्र खडा कर दूंगा।
वह शक्ति है भुजाओं में जो पहाड़ो को भी धूल बना दे।
वह विश्वास है हृदय में जो पत्थरों को भी मोम कर दे।
है कोई मझधार नहीं, जो मुझको डुबो सके।
है कोइ दीवार नहीं, जो मुझको रोक सके।
है कोई ऊँचाई नहीं, जिसे मैं छू न सकूं।
है कोई गहराई नहीं, जिसमें मैं डूब सकूं।
तनहाईयों में जीकर जीतने की चाहत है मुझमें,
गोलियां पीठ पर नहीं,
सीने पर खाकर मरने की आदत है मुझमें।
दुश्मनों की गोलियों को प्रेमी समझ सीने से लगाता हूं,
भूख को प्रेम विरह समझ अपनाता हूं,
बन्दूकें मेरे हाथों में, उसके हाथ होने का एहसास दिलाता है,
इससे निकली गोलियाँ, हृदय को सुकून दिलाता है।
प्रलय में पले हुए है, विनाश में बढे हुए है।
सुबह हो या शाम हो, शीत हो या घाम हो।
मिट्टी ने विकास किया, अग्नि ने प्रकाश दिया।
बाधाओं ने हीं हमें बढने का एहसास दिया।
सर पे कफ़न बांध कली की तरह ईठलाता हूँ,
जब मरता हूँ तो फूल की तरह खिल जाता हूँ।
जब मेरे शरीर के टुकड़े धरती पर फैल जाते है,
स्वंय को मां के चरणों में न्योछावर पाता हूँ।
मृत्यु के समीप हूँ, घायल हूँ मृत हूँ।
पैर रुक गये है मेरे हाथ झुक गये है मेरे।
रुक गयी क्यों न हो मेरे धर की गति।
एक इच्छा हॄदय में है प्राप्त करुं वीरगति।
हिम की बरसात हो या रेत का तूफान हो।
काटों की चुभन हो या विषों का उफान हो।
विधाता से एक यही प्रार्थना है,तब भी मेरे मुख पर अविचल मुस्कन हो।
(31 जुलाई 2000)
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