लकीर पर चढ़ता गया मैं ।
लकीर बढ़ती हीं गयी
और रह गया
मैं किनारे पर हीं ।
आखिर यह किनारा
खत्म क्यों नहीं होता ?
लकीर पर चढ़ता गया मैं ।
लकीर बढ़ती हीं गयी
और रह गया
मैं किनारे पर हीं ।
आखिर यह किनारा
खत्म क्यों नहीं होता ?
पहाड़ से नीचे उतरते हुऐ
दूर तक दिखते
छोटे-छोटे घर
जहाँ कैद है अभी भी
कुछ भूली-बिसरी यादें ।
दूर तक फैला हुआ
कुहासे में लिपटा
गुमशुदा शहर
जहाँ से बच निकला था मैं कभी ।
घुमावदार सड़कों पर
और इन सड़को से भी ज्यादा
टेढ़ी-मेढ़ी यह जिन्दगी ।
जिन्दगी की दीवार पर
कील की तरह
टंगी कुछ यादें ।
सदियां बीत जाये
भूलने में
और तुम्हारे काँधे की गर्म खुशबू
भुला नहीं पाया मैं आजतक ।
अब पहाड़ों पर
नहीं जाता मैं ।
अपनी बात ।
जब भी मन करता है
कह देता हूँ ।
मैं नहीं जानता कि
तुम तक
पहुँच भी पाती है
मेरी आवाज या नहीं ।
फिर भी
चुप नहीं रह पाता मैं ।
मुझे पता है कि
मेरी आवाज बहुत धीमी है ।
मुझे पता है कि
जब भी बोलता हूँ
शब्द लड़खड़ा जाते है मेरे ।
पर क्या
इसलिये मैं चुप हो जाऊँ
कि मैं दहाड़ नहीं सकता ।
मैं चढ़ नहीं सकता पहाड़ों पर
तो क्या ?
मैं बहता रहूँगा नदियों में
कल-कल की ध्वनि बनकर
जो उतरकर आती है
इन्हीं पहाड़ों से ।
मेरे विचारों पर
खामोशी की परत
जरूर चढ़ी है
पर मैं इन्हें बदल दूँगा
वक्त की ऊर्जा में ।
जब भी मैं चुप होता हूँ
बहुत करीब हो जाता हूँ
तुमसे !!!
आओ निर्माण करें ।
कि तुम्हारे लिये
ले आऊँगा तोड़कर
चाँद तारे ।
मैं नहीं कहता
कि तुम्हारे लिये
बना दूँगा पहाड़ को धूल
और
झुका दूँगा आसमान को
जमीन पर ।
मैं तो बस ला पाऊँगा
तुम्हारे लिये
ओस में लिपटे
धूल से सने
डाली से गिरे
कुछ फूल
जिनमें अभी भी बांकी है सुगंध ।
भरती गयी
अन्दर तक
मेरे फेफड़ों में ।
विसरित होती गयी
धमनियों में ।
न जाने क्यों
बहुत हीं तकलीफ़ होती है
आजकल
सांस लेने में ।
आदमी इतनी आसानी से
मरता भी क्यों नहीं ।