गुरुवार, 11 मार्च 2010

जाल (Trapped)

कॉलेज के कुछ दोस्तों ने मिलकर ५ मिनट की एक छोटी सी फ़िल्म “TRAPPED” बनाई थी । यह उनका पहला प्रयास था ।  बिना संवाद वाले इस फ़िल्म में दिखाया गया है कि किस तरह एक छात्र गलत संगत में पड़कर, अपना जीवन बर्बाद कर लेता है ।

 

 

और हाँ लगे हाथ मैने भी अभिनय में अपना हाथ आज़मा लिया है । बताईये कैसी लगी यह फ़िल्म ? 

सोमवार, 8 मार्च 2010

एक स्तब्ध पेड़

दीदी “समता” की एक रचना-

 

एक स्तब्ध पेड़

पतझड़ सी भंगिमा लिये

एक स्तब्ध पेड़ ।

उसकी निस्तब्धता विच्छिन्न क्यों ?

शायद देखता है,

अपने साथियों को,

सावन आने की खुशी में,

खिलते हुऐ ,

हरियाली दिखाते हुऐ ।

मगर वह क्यों वंचित है,

इन खुशियों से ?

प्रकृति नहीं जानता,

भेद भाव का नियम ।

शायद जानता है कि

छिन्न होने वाले सारे

फेंक आये है अपनी कांति को,

अपने ही हाथों से ।

अविच्छिन्नता पसन्द है इसको,

चाहे अवांछित ही क्यों न हो,

पर इसका एहसास,

कहाँ है इसको ।

शायद यह खुश है कि

हमारे सफर की दूरी छोटी है ।

 

-(समता झा) 

गुरुवार, 4 मार्च 2010

पतझड़

इतने वर्षों के बाद,

मिली तुम आज, इस तरह,

सोचा, खेलूँगा तुम्हारे संग होली,

लगा दूंगा, थोड़ा सा गुलाल,

तुम्हारे गालों पर,

कुछ रंग जा बसेंगे,

तुम्हारी माँग में ।

ढ़ूंढ़ा अपनी पोटली में,

पर रंग कहाँ बचे थे वहाँ ।

शायद पुराने बक्शे में हो,

पर सबकुछ तो,

साथ ले गयी थी तुम ।

बचा क्या रह गया था,

मेरे पास ।

हाँ याद आया,

तुम्हारे जाने के बाद,

अलमारी में पड़ी,

तुम्हारी सिन्दूर की डिब्बी,

फेंक आया था,

पास के तालाब में ।

आज तक सूखी नहीं यह तालाब,

बस मैं हीं पतझड़ हो गया । 

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

कुछ और सँवर गये होते

 

दीदी “समता” की एक रचना-

 

 

फूल

बीते दिनों को याद करते है हम,

वक्त कुछ कम न था,

ओह !!!  कुछ और सँवर गये होते ।

हँसी जो ठहाको में बदल जाती थी,

मगर थी सूखी और बेवजह की,

कुछ वजह होती और मुस्करा लिये होते,

कुछ और सँवर गये होते ।

राहें सुनसान थी मेरी,

मगर एहसास था सुहानेपन का,

काश कुछ समझ होती,

दो चार फूल खिला लिये होते,

कुछ और सँवर गये होते ।

चाँदनी भी निकलती थी अकसर,

हम अँधेरे से खुश थे,

काश, अँधेरे को चाँदनी बना लिये होते

कुछ और सँवर गये होते ।

जब कभी सोचा भी, वह स्वार्थ था, 

न परोपकार था, न आदर्श,

काश हम औरो को समर्पित हो गये होते,

कुछ और सँवर गये होते ।

 

(समता झा)

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

देखा मैंने

देखा उड़ते धूल कोDSC02305

कि

झूमते बबूल को

छांव में जो पल रहे

तृण, कर रहे अठकेलियां

वह भी जले वह भी मिटे

बच न सके ताप से ।

देखा जलते हुए तन को

और

घर्षण करते मन को

बूँद-बूँद टपकते,

और

खत्म होते समय को,

देखा पास आते प्रलय को ।

देखा सृजित होते , नष्ट होते

तीव्र सूक्ष्म कणों को

और

पराजित होते नियम को ।

अपनी हीं तलाश में

विकल और विक्षिप्त,

और

देखा आँखों से झड़ते

अश्रु कण को ।