रविवार, 16 अक्टूबर 2022

 

The Case for IndiaThe Case for India by Will Durant
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शनिवार, 7 मई 2022

                                                                       कंचनजंघा रेंज 



सोमवार, 17 अगस्त 2015

कांतीभाई

लड़के ने अपनी नयी नयी मूछें कुतरवाई । साथ की कुर्सी पर बैठे मित्र ने अठखेेली की - "गुरू पूरा ही सफाचट करवा लो न " ।

हज्जाम ने आँखे सिकोरकर दोनों  को बारी - बारी से देखा ।


"मरवाओगे क्या " लड़के ने हँसते हुए कहा ।

मित्र मण्डली जोर के ठहाके से गूँज उठी ।

मूंछो को बारिकी से सजा दिया गया ।

टोली में चार पांच लोग थे । किसी ने चेहरे का मसाज करवाया तो किसी के बालों को खूबसूरती से सँवारा  गया ।
हज्जाम ने एक - एक कर सभी को निपटाया ।

मैं आधे घण्टे से अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था ।

शोर के साथ सभी दूकान से बाहर आ गए ।

"क्या सर? दाढ़ी या बाल ?"

ये बगल की कुर्सी पर जो लड़का बैठा था न .…इसके चाचा के कई सारे कारोबार है । महीने का एक से डेढ़  लाख तो सिर्फ पुलिस के पास पहुंचता है । सोचिये कितनी आमदनी होगी । खूब पैसा उड़ाते  है ये लड़के लोग ।

अच्छा ! करते क्या है इनके चाचा ?

अरे सर दारू का कारोबार है और न जाने क्या क्या ।
 
लेकिन लड़के लोग अपने भाई जैसे है । जाखड़ गाँव से यहाँ आये है……१० किलोमीटर दूर से । मेरी ही दूकान पर आते है सब । हमेशा !!!

सबको कांतीभाई ही चाहिए । गर्व का अनुभव किया उसने ।



मंगलवार, 12 मई 2015

अपना इतिहास


 













शब्द मेरे हो या तेरे 
कहानी एक ही लिखी जाएगी । 

साफ़ सफ़ेद पन्नों पर 
आर- पार दिखेगा 

अपना इतिहास ।



सोमवार, 4 मई 2015

विवश आदमी


झुकाता है शीश । 

खूंटे को ही समझता  है
अपना ईष्ट  ।

आँखो पर पट्टियाँ बांधे
लगातार बार -  बार
कोल्हू के बैल की तरह
लगाता  चक्कर  ।

सभ्यता के खूंटे में बंधा
विवश आदमी  ।



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बुधवार, 29 अप्रैल 2015

इश्क की ख़ुशबू



तेरे इश्क की ख़ुशबू

मेरे साँसों में बसती है

कि अपनी रूह से पूछो

मिटा कर खाख कर डाला

खुद को इश्क में तेरे ।











शनिवार, 25 अप्रैल 2015

गजेन्द्र


गजेन्द्र गए तुम ऊपर
वाल पर चढ़ गया एक और स्टेटस

- इंक़लाब ज़िंदाबाद । 

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गजेन्द्र बढ़ो आगे अब तुम
ठेल - ठाल चढ़ जाओ सूली

 - जय जवान जय किसान ।

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प्राण दिए व्यर्थ ही
गजेन्द्र गए बिना अर्थ ही

- दिल्ली चलो दिल्ली चलो  ।

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महान मेरा तंत्र यह
गजेन्द्र सुनो मंत्र यह

- तुम मुझे रक्त दो मैं तुम्हें लोकतंत्र  दूँगा ।


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सोमवार, 20 अप्रैल 2015

दूरी आदमी - आदमी के बीच की

आदमी को देखो

चाँद पर चला गया है वह ।

और कहता है

उससे भी आगे जाने की

फिराक में है वह ।

उसके दूत निकल चुके  है

अंतरिक्ष की अनंत सैर  को

पृथ्वी और सूर्य की

संधी से बाहर

असीम संभावनाओं  की तलाश में ।

प्रकाश की गति को

प्राप्त कर लेना चाहता है आदमी

और वह सफल भी होगा  ।

बस आदमी और आदमी का विज्ञान

नहीं कर पाया तय दूरी

आदमी - आदमी के बीच की ।


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बुधवार, 15 अप्रैल 2015

समय की स्याही

वह धोता है अपनी तलवार

रक्त की ऊष्मा से ।

वह चुनता है सत्य को

ताकि समय की स्याही

उसे याद रख सके  ।

किन्तु बच नहीं पाता वह भी

समय द्वारा

खण्डहर होने से  ।



मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

मैं भाग रहा था ।

साँझ हुई थी

सब चुप थे ।

कहीं बूँद गिरी थी

बादल पिघले थे ।

चुप चाप खड़ा

सहमा सा था ।

न जाने कब से

खुद से ही

मैं भाग रहा था । 



रविवार, 10 मार्च 2013

सौ रुपये


“साहब सौ रुपये चाहिये !!!”
अपने झोले से खाली बोतल निकालकर मेरे सामने कर दिया उसने |
“साहब घर में तेल खत्म हो गया है, खाना नहीं बना अभी तक” |
रात के करीब नौ बज रहे थे |

“अरे अभी कल ही तो सौ रुपये दिये थे, सफाई के”
“वो तो खर्च हो गये”,
“सामान कितना मंहगा हो गया है साहब” |

“ठीक है, दारू – वारू तो नहीं पी लोगे ?”
“नहीं नहीं साहब” – जीभ काटकर उसने कहा |

सौ का नोट निकालकर उसके हाथ में रख दिया गया |
उसकी आँखें चमकी |
“पर देखो विवार को आकर सफाई कर जाना” |

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“सिर्फ पचास रुपये देने थे उसे भाई”
“हाँ ! लेकिन पूरा घर साफ किया था उसने यार, और बाईक भी धुलवाई थी”

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“अरे तुम तो आते ही रह गये ?, दो महने से घर गंदा पड़ा है”
“इस रविवार को पक्का आ जाना”
“हाँ साहब जरूर आऊँगा ”|

“अपना मोबाईल नम्बर बताओ”
अपने सारे दाँत बाहर निकाल दिये उसने – “साहब मोबाईल कहाँ है अपने पास”
“अच्छा ! – रविवार को जरूर आ जाना”
सौ रुपये की बात नहीं कर पाया उससे |

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अभी जब कमरा साफ करने लगा तो उसकी याद आ गयी या सौ रुपये ने उसकी याद दिला दी  |

मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011

अंत में

मैनें देखा नहीं है,

उगते हुए सूरज को वर्षों से ।

छिपकर बैठा है,

प्राचीन शैतान !!!

कोशिश करता हूं जब भी…

कि अपनी आंखे खोलूं,

नींद में डूब जाता हूं मैं ।  

देखता हूं जब भी,

दूर से आते हुए प्रकाश को,

और फ़िर,

विकृत और सिमटते हुए प्रतिबिंब को,

सच की तलाश में जुट जाता हूं मैं ।

मेरी तरह,

कई लोगो नें,

देखा नहीं है उगते हुए सूरज को,

वर्षो से ।

और हम मान बैठे है….

हमें बचा लिया जायेगा ।

रविवार, 13 जून 2010

मेरे अतीत का आँगन

आह !!!

कैसा है यह दुःसाहस,

देखता हूँ मुड़कर मैं,

अपने अतीत के उस खण्डहर को,

अपने आँगन में,

सर झुकाए मैं खड़ा था ।

टूट रहा था विश्वास,

खत्म हो रहे थे सारे सम्बन्ध,

मेरे मन के उस आँगन में ।

और

मिट चुकी थी

भविष्य की रेखाऐं

मेरे छोटे-छोटे हाथों से ।

मुझे याद नहीं,

माँ का आँचल

जहां मैं अपने आँसू पोछ सकता ।

मुझे अब याद नहीं,

पिता का नर्म स्पर्श ।

मेरा बचपन,

टूट रहा था ।

और मैं-

सर झुकाए आज भी खड़ा हूँ

अतीत के उस आँगन में ।

बुधवार, 9 जून 2010

क्यों…?

खाली रह जाता हूँ मैं,

बार-बार ।

जितना भी तुम भरती हो,

मैं खाली होता जाता हूँ ।

तरल होता जाता हूँ,

पल-पल,

हमेशा,

मैं ठोस होने की कोशिश में ।

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

अगले जनम मोहे कौआ न कीजो

कौवा रोज शाम को यूनिवर्सिटी ग्राऊंड में दौड़ने के लिये जाता हूँ । मैदान के चारो तरफ ऊँचे-ऊँचे पेड़ लगे हुए है । आज कैम्पस में यूथ फ़ेस्टिवल का अंतिम दिन था तो कुछ छात्र पटाखे इत्यादि फ़ोड़ रहे थे । इन पटाखों की आवज से डरकर सैकड़ो नहीं हजारों कौवे पेड़ से उड़कर इधर-उधर काँव-काँव करते हुए मंडराने लगे । मैनें ज़िन्दगी में पहली बार इतने कौवो को एक साथ देखा । मैं तो हतप्रभ था । आखिर इतने कौवे आये कहाँ से ?    आज जब पर्यावरण प्रदूषण के कारण बहुत से जीव जब विलुप्त होने की कगार पर है, क्या ये कौवे विलुप्त नहीं हो रहे है ? क्या ये इन्डेंज़र्ड नहीं है ? बाघ जैसा जानवर विलुप्त होने की कगार पर है । गौरैया पक्षी अब बहुत कम दिखाई देती है । बाघ (या किसी भी जीव का) का फ़ूड चेन में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान होता और यह सोचकर डर होता है कि इनके विलुप्त हो जाने से कितनी जटिल समस्या उत्पन्न होगी/हो रही है । बचपन की याद आती है कि किस तरह तिकड़म लगाकर गौरैया को पकड़ते थे और उसे लाल-हरा-पीला अनेक रंगो से रंगकर उड़ा देते थे । इस कार्य में कितना आनंद आता था । देखिये विषयांतर हो गया । कर रहे थे बात कौओ की और आ गये कहाँ ।

तो मुझे लगता है ये सारे कौवे भागे हुऐ कौवे है और गाँव-देहात छोड़कर शहर आ बसे है । सोचा होगा शहर में आकर दाना-पानी-आवास की सुविधा मिलेगी । अब यहाँ आकर कर रहे है कौवामारी । आदमियों ने तो इनकी रात की नींद तक हराम कर रखी है । पर कौवा बहुत हीं एडज़स्टेवल जीव होता है, और इनकी एकता तो देखने वाली होती है । मुझे तो लगता है आदमी विलुप्त हो जाये पर ये बचे रहेंगे । क्या बाढ़, क्या सुखाड़, क्या पर्यावारण प्रदूषण, जबर्दस्ट ईम्यूनिटी होती है इनमें । मैनें सुना है कि महाभारत युद्ध के बाद कई दिनों या कहिये कई महिनों तक कौवो, चीलों और गिद्धों की पार्टी चली थी । अब गिद्ध और चील तो नजर नहीं आते पर कौवा अभी तक बचा हुआ है । कौवा अभी तक ईवोल्यूट करता आया आगे भी करता रहेगा । तो कौवा बचा रहेगा ।

खैर बात जो भी हो इस कौवा पक्षी से अपनी कभी नहीं बनी । बचपन में एक बार एक ऊँचे नीम के पेड़ पर दांतुन तोड़ने के लिये चढ़ गया था, बिना यह जाने कि उस पेड़ पर कौवा ने घोंसला बना रखा है । सिर मुड़ाया और ओले पड़ने वाली बात तो यह हुई कि घोंसले में उस कौवे ने अण्डे दे रखे थे । पेड़ के उपर चढ़ते–चढ़ते ही 10-20 कौवो ने मेरे उपर आक्रमण कर दिया । किसी तरह पेड़ से उतरकर मैं भाग खड़ा हुआ । पर कब तक मैं घर के अंदर रहता, दिन का आधा समय तो मैं छत पर या अमरूद के पेड़ पर बिताया करता था । बहुत हीं मुश्किल समस्या उतपन्न हो गयी थी । स्कूल जाने के लिये घर से निकलता तो कौवे बस स्टेण्ड तक मेरा पीछा करते । कई बार कौवो के चोंच से अपने सर पर चोट भी खायी । मेरी स्थिती “न घर का न घाट का” वाली हो गयी थी । करीब 10-15 दिनों तक यह स्टार वार चलता रहा । आखिर कौवे भी तो आकाशीय जीव ही है। कौवो नें इस मैटर को बहुत ही पर्सनली लिया था शायद । खैर किसी तरह ये यह युद्ध खत्म हुआ । और मैं अब पुनः अपने दिन का आधा समय अमरूद के पेड़ पर बिता सकने के लायक हुआ । उसके बाद मैनें कभी कौवो से पंगा नहीं लिया और उनसे दूर हीं रहा ।

सालों बाद इन कौवों ने बचपन की याद दिला दी । अब तो ये कौवे दोस्त की तरह लगते है, हालंकि अभी भी दूरी बनाकर ही रखता हूँ । अब मुझे पता है ये पर्यावरण के अच्छे दोस्त है । कौवा बहुत काम का जीव है । पर्यावरण में फैला बहुत सारा कूड़ा-करकट-कचड़ा तो यह अकेले ही साफ़ कर देता है । इन कौवो की हमें बहुत जरूरत है खासकर शहरों में तो और भी ज्यादा । अभी भले हीं इनकी संख्या ठीक ठाक लग रही हो पर मनुष्यों  की प्रगति  यूँ हीं जारी रही तो ये कौवे भी एक दिन बाघ बन जाएगें और फ़िर समाचारपत्र में विज्ञापन निकलेगा-

SAVE CROW !!!  LEFT ONLY 1811 !!!

कुछ दिनों की सुगबुगाहट और सरगर्मी, उसके बाद सबकुछ ठण्डा । कुछ लोग ईनाम जीत लेंगे कुछ प्रतियोगिता करवाकर पब्लिशिटी । भविष्य में ये कौवे “कौआ और कंकड़” वाली कहानी के ज़रिये याद रखे जायेंगे । सोच रहा हूँ, कौवों की कुछ ताजा तस्वीर अपने कम्प्यूटर में सेव करके रख लूँ । एक घड़ियाली आँसू और सही ।

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

कॉलेज के दिन…….याद आएँगे……

आज कॉलेज का अंतिम दिन था । कुछ दिनों में फाईनल परिक्षायें होंगी, उसके बाद हम सभी छात्र अपना बोरिया- बिस्तर बाँध यहाँ से निकल पड़ेगे । चार साल किस तरह बीत गये, कुछ पता हीं नहीं चला । मन दुःखी इसलिये है कि हम सभी दोस्त एक दूसरे से बिछड़ जायेंगे और ना जाने फिर कब मिलना हो । और खुशी इस बात की कि अब 6-6 घंटे की उबाऊ  कक्षाओं से मुक्ति मिल जायेगी । हमारे जूनियर्स, हमारी विदाई अश्रुपूरित नेत्रों से पहले हीं कर चुके है । 19 मार्च को उन लोगो ने हम सभी सीनियर्स के लिये शानदार पार्टी आयोजित की थी । समारोह के अंत में सभी भावुक होकर रोने लगे थे । कुछ तस्वीरें-

 

 

यह आना-जाना, छूटने-बिछड़ने का क्रम तो लगा हीं रहता है । यह बात  हम सभी जानते है, पर यह मन कहाँ मानता है । आगे की ज़िन्दगी हम लोगों की राह देख रही है, ना जाने कैसे-कैसे रास्ते मिलेंगे । कहीं पढ़ा था “बहता पानी निर्मला  । यह पानी कितना निर्मल है यह तो नहीं पता, पर यह ज़िन्दगी बहती रहेगी, पानी की तरह हमेशा ।

 

ज़िन्दगी !!!

मैं तुम्हारे साथ चलना चाहता हूँ

कदम से कदम मिलाकर

बैठा हूँ इंतजार में तुम्हारे

संग चलोगी क्या तुम मेरे ?

फूल मिलेंगे या फिर काटें

तुम्हारे दामन  में

रखूँगा सम्भाल कर उन्हें

बहुत तेज नहीं चल पाऊँगा तो

क्या फिर भी दोगी साथ मेरा तुम

ज़िन्दगी !!!

संग चलोगी क्या तुम मेरे ?

 

कॉलेज और दोस्तों की याद में मेरे दोस्त और रूममेट “नवनीत नवल” ने एक म्युज़िकल एल्बम “कॉलेज के दिन”  बनाई है । इस गीत को नवनीत ने लिखा है और संगीत भी उसी ने तैयार किया है  । गीत को गाया भी नवनीत ने ही है । इस एल्बम का तैयार होना नवनीत के लिये किसी ख्वाब के पूरा होने से कम नहीं है । हम सभी के लिये यह एक बहुत बड़ी बात है । यह गीत हम सभी दोस्तों के लिये कालेज की यादों की एक सच्ची निशानी है, एक उपहार है जिसे हम सभी दोस्त हमेशा गाते रहेंगे और गुनगुनाते रहेंगे । हमेशा याद रखेंगे । यह विडियो देखिये-

 

कॉलेज के दिन-नवनीत नवल

 

ऑडियो आप यहाँ से सुन सकते हैं-

बुधवार, 17 मार्च 2010

सुबह तक

सुबह तक मुझे पसंद नहीं

सूरज का डूबना ।

न जाने कौन सी

एक आग

अन्दर हीं अन्दर

जलती रहती है ।

कण- कण

पिघलता जाता हूँ

सुबह तक

कहाँ बच पाता हूँ । 

सोमवार, 15 मार्च 2010

क्योंकि मैं घबड़ा जाती हूँ तेरी नाराजगी से

दीदी समता की एक रचना-

बगैर आँसू के जो गुलशन हरा न हो,CACLSFCV
भला क्या वास्ता हो उस हरियाली से ।

वो आईना धुँधला ही पर जाये तो बेहतर हो
जो खौफ़ का समां बना दे अपनी सफ़ेदगी से ।

बहुत चाहा, बहुत समझा अपना जिसे,
कैसे नवाज दूँ उसे शब्द अजनबी से ।

तेरी फुरकत में नज़र न आये अपनी भी सूरत,
यही वज़ह है कि मैं बचती फिरती हूँ रौशनी से ।

अगर सँवरते हो सिर्फ़ मेरे लिये तो सँवरना छोड़ दो
क्योंकि मुझे तो मुहब्ब्त है बस तेरी सादगी से ।

जब भी मिलते हो तुम दर्द दिल बयां करते हो
मैं हीं तंग आ चुकी हूँ मुहब्बत की राजगी से ।

मेरी गुस्ताखी के बदले अपनों की तरह शिकायत कर दो,
क्योंकि मैं घबड़ा जाती हूँ तेरी नाराजगी से ।

-(समता झा)

गुरुवार, 11 मार्च 2010

जाल (Trapped)

कॉलेज के कुछ दोस्तों ने मिलकर ५ मिनट की एक छोटी सी फ़िल्म “TRAPPED” बनाई थी । यह उनका पहला प्रयास था ।  बिना संवाद वाले इस फ़िल्म में दिखाया गया है कि किस तरह एक छात्र गलत संगत में पड़कर, अपना जीवन बर्बाद कर लेता है ।

 

 

और हाँ लगे हाथ मैने भी अभिनय में अपना हाथ आज़मा लिया है । बताईये कैसी लगी यह फ़िल्म ? 

सोमवार, 8 मार्च 2010

एक स्तब्ध पेड़

दीदी “समता” की एक रचना-

 

एक स्तब्ध पेड़

पतझड़ सी भंगिमा लिये

एक स्तब्ध पेड़ ।

उसकी निस्तब्धता विच्छिन्न क्यों ?

शायद देखता है,

अपने साथियों को,

सावन आने की खुशी में,

खिलते हुऐ ,

हरियाली दिखाते हुऐ ।

मगर वह क्यों वंचित है,

इन खुशियों से ?

प्रकृति नहीं जानता,

भेद भाव का नियम ।

शायद जानता है कि

छिन्न होने वाले सारे

फेंक आये है अपनी कांति को,

अपने ही हाथों से ।

अविच्छिन्नता पसन्द है इसको,

चाहे अवांछित ही क्यों न हो,

पर इसका एहसास,

कहाँ है इसको ।

शायद यह खुश है कि

हमारे सफर की दूरी छोटी है ।

 

-(समता झा)