झुकाता है शीश ।
खूंटे को ही समझता है
अपना ईष्ट ।
आँखो पर पट्टियाँ बांधे
लगातार बार - बार
कोल्हू के बैल की तरह
लगाता चक्कर ।
सभ्यता के खूंटे में बंधा
विवश आदमी ।
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आह !!!
कैसा है यह दुःसाहस,
देखता हूँ मुड़कर मैं,
अपने अतीत के उस खण्डहर को,
अपने आँगन में,
सर झुकाए मैं खड़ा था ।
टूट रहा था विश्वास,
खत्म हो रहे थे सारे सम्बन्ध,
मेरे मन के उस आँगन में ।
और
मिट चुकी थी
भविष्य की रेखाऐं
मेरे छोटे-छोटे हाथों से ।
मुझे याद नहीं,
माँ का आँचल
जहां मैं अपने आँसू पोछ सकता ।
मुझे अब याद नहीं,
पिता का नर्म स्पर्श ।
मेरा बचपन,
टूट रहा था ।
और मैं-
सर झुकाए आज भी खड़ा हूँ
अतीत के उस आँगन में ।
खाली रह जाता हूँ मैं,
बार-बार ।
जितना भी तुम भरती हो,
मैं खाली होता जाता हूँ ।
तरल होता जाता हूँ,
पल-पल,
हमेशा,
मैं ठोस होने की कोशिश में ।
सूरज का डूबना ।
न जाने कौन सी
एक आग
अन्दर हीं अन्दर
जलती रहती है ।
कण- कण
पिघलता जाता हूँ
सुबह तक
कहाँ बच पाता हूँ ।
दीदी “समता” की एक रचना-
पतझड़ सी भंगिमा लिये
एक स्तब्ध पेड़ ।
उसकी निस्तब्धता विच्छिन्न क्यों ?
शायद देखता है,
अपने साथियों को,
सावन आने की खुशी में,
खिलते हुऐ ,
हरियाली दिखाते हुऐ ।
मगर वह क्यों वंचित है,
इन खुशियों से ?
प्रकृति नहीं जानता,
भेद भाव का नियम ।
शायद जानता है कि
छिन्न होने वाले सारे
फेंक आये है अपनी कांति को,
अपने ही हाथों से ।
अविच्छिन्नता पसन्द है इसको,
चाहे अवांछित ही क्यों न हो,
पर इसका एहसास,
कहाँ है इसको ।
शायद यह खुश है कि
हमारे सफर की दूरी छोटी है ।
-(समता झा)
इतने वर्षों के बाद,
सोचा, खेलूँगा तुम्हारे संग होली,
लगा दूंगा, थोड़ा सा गुलाल,
तुम्हारे गालों पर,
कुछ रंग जा बसेंगे,
तुम्हारी माँग में ।
ढ़ूंढ़ा अपनी पोटली में,
पर रंग कहाँ बचे थे वहाँ ।
शायद पुराने बक्शे में हो,
पर सबकुछ तो,
साथ ले गयी थी तुम ।
बचा क्या रह गया था,
मेरे पास ।
हाँ याद आया,
तुम्हारे जाने के बाद,
अलमारी में पड़ी,
तुम्हारी सिन्दूर की डिब्बी,
फेंक आया था,
पास के तालाब में ।
आज तक सूखी नहीं यह तालाब,
बस मैं हीं पतझड़ हो गया ।
दीदी “समता” की एक रचना-
बीते दिनों को याद करते है हम,
वक्त कुछ कम न था,
ओह !!! कुछ और सँवर गये होते ।
हँसी जो ठहाको में बदल जाती थी,
मगर थी सूखी और बेवजह की,
कुछ वजह होती और मुस्करा लिये होते,
कुछ और सँवर गये होते ।
राहें सुनसान थी मेरी,
मगर एहसास था सुहानेपन का,
काश कुछ समझ होती,
दो चार फूल खिला लिये होते,
कुछ और सँवर गये होते ।
चाँदनी भी निकलती थी अकसर,
हम अँधेरे से खुश थे,
काश, अँधेरे को चाँदनी बना लिये होते
कुछ और सँवर गये होते ।
जब कभी सोचा भी, वह स्वार्थ था,
न परोपकार था, न आदर्श,
काश हम औरो को समर्पित हो गये होते,
कुछ और सँवर गये होते ।
(समता झा)
कि
झूमते बबूल को
छांव में जो पल रहे
तृण, कर रहे अठकेलियां
वह भी जले वह भी मिटे
बच न सके ताप से ।
देखा जलते हुए तन को
और
घर्षण करते मन को
बूँद-बूँद टपकते,
और
खत्म होते समय को,
देखा पास आते प्रलय को ।
देखा सृजित होते , नष्ट होते
तीव्र सूक्ष्म कणों को
और
पराजित होते नियम को ।
अपनी हीं तलाश में
विकल और विक्षिप्त,
और
देखा आँखों से झड़ते
अश्रु कण को ।
लकीर पर चढ़ता गया मैं ।
लकीर बढ़ती हीं गयी
और रह गया
मैं किनारे पर हीं ।
आखिर यह किनारा
खत्म क्यों नहीं होता ?
पहाड़ से नीचे उतरते हुऐ
दूर तक दिखते
छोटे-छोटे घर
जहाँ कैद है अभी भी
कुछ भूली-बिसरी यादें ।
दूर तक फैला हुआ
कुहासे में लिपटा
गुमशुदा शहर
जहाँ से बच निकला था मैं कभी ।
घुमावदार सड़कों पर
और इन सड़को से भी ज्यादा
टेढ़ी-मेढ़ी यह जिन्दगी ।
जिन्दगी की दीवार पर
कील की तरह
टंगी कुछ यादें ।
सदियां बीत जाये
भूलने में
और तुम्हारे काँधे की गर्म खुशबू
भुला नहीं पाया मैं आजतक ।
अब पहाड़ों पर
नहीं जाता मैं ।
अपनी बात ।
जब भी मन करता है
कह देता हूँ ।
मैं नहीं जानता कि
तुम तक
पहुँच भी पाती है
मेरी आवाज या नहीं ।
फिर भी
चुप नहीं रह पाता मैं ।
मुझे पता है कि
मेरी आवाज बहुत धीमी है ।
मुझे पता है कि
जब भी बोलता हूँ
शब्द लड़खड़ा जाते है मेरे ।
पर क्या
इसलिये मैं चुप हो जाऊँ
कि मैं दहाड़ नहीं सकता ।
मैं चढ़ नहीं सकता पहाड़ों पर
तो क्या ?
मैं बहता रहूँगा नदियों में
कल-कल की ध्वनि बनकर
जो उतरकर आती है
इन्हीं पहाड़ों से ।
मेरे विचारों पर
खामोशी की परत
जरूर चढ़ी है
पर मैं इन्हें बदल दूँगा
वक्त की ऊर्जा में ।
जब भी मैं चुप होता हूँ
बहुत करीब हो जाता हूँ
तुमसे !!!
आओ निर्माण करें ।
कि तुम्हारे लिये
ले आऊँगा तोड़कर
चाँद तारे ।
मैं नहीं कहता
कि तुम्हारे लिये
बना दूँगा पहाड़ को धूल
और
झुका दूँगा आसमान को
जमीन पर ।
मैं तो बस ला पाऊँगा
तुम्हारे लिये
ओस में लिपटे
धूल से सने
डाली से गिरे
कुछ फूल
जिनमें अभी भी बांकी है सुगंध ।
भरती गयी
अन्दर तक
मेरे फेफड़ों में ।
विसरित होती गयी
धमनियों में ।
न जाने क्यों
बहुत हीं तकलीफ़ होती है
आजकल
सांस लेने में ।
आदमी इतनी आसानी से
मरता भी क्यों नहीं ।
कि एक हवा चली है
चुप हो जाओ
बह जाओ ।
कि एक फूल खिला है
चुप हो जाओ
खिल जाओ ।
कि एक दीप जला है
चुप हो जाओ
जल जाओ ।
कि एक बादल निकला है
चुप हो जाओ
बरस जाओ ।
कि एक पत्ता टूटा है
चुप हो जाओ
खो जाओ ।
कि एक सूरज निकला है
चुप हो जाओ
भर जाओ ।
कि एक प्रेम मिला है
चुप हो जाओ
झुक जाओ ।
बहना नदी की तरह
निर्विरोध और तीव्र वेग लिये
कि बन जाये आत्मा
एक नदी चंचल
और मिटा दे अपना अस्तित्व
मिलकर अपने इष्ट से ।
खिलना पुष्प की तरह
महक और सौंदर्य लिये
कि बन जाये आत्मा
एक पुष्प गुच्छ
और कर दे अपना जीवन समर्पित
अपने प्रिय के आंचल में ।
चलना पवन की तरह
वेग और उन्मांद लिये
कि बन जाये आत्मा
एक हवा का झोंखा
और टकराकर किसी ऊँचे पर्वत से
झर जाये झर-झर निर्झर ।
होना विशाल महासागर की तरह
लहरें और कोलाहल लिये
कि बन जाये आत्मा
एक सागर अथाह
और लाख हाहाकार लिये भी
अंदर से हो शांत और गहरा ।
तपना सूरज की तरह
लावा और उष्मा लिये
कि बन जाये आत्मा
एक सूरज चमकदार
और स्वयं जलते हुये भी अनवरत
भर दे जीवन कण कण में ।
(भैया रावेंद्रकुमार रवि द्वारा दिये गये सुझाव के अनुसार उपरोक्त कविता को सम्पादित कर पुनः प्रकाशित किया गया है )