शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

मुक्ति का मार्ग

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 (संत तिरुवल्लुवर की प्रतिमा और विवेकानंद रॉक मेमोरियल, पीछे से सुर्योदय का दॄश्य)

 

 

खरीददार हूं मैं,

खरीदता हूँ मैं,

सबकुछ,

तुम्हारी,

आत्मा, शरीर, मन ।

 

मैं खरीदता हूँ,

समय और आकाश,

ताकि तुम,

पहुँच न सको,

अपनी उर्जा के स्रोत तक ।

 

क्या बेचोगे,

अपने आप को तुम ?

जो भी मूल्य लगाओ,

मैं खरीद लेता हूँ ।

 

मैं खरीदता हूँ,

ताकि तुम देख न सको,

अपनी आँखो में छिपे हुये,

कुछ निशान ।

क्या कोई देख सकता है,

स्वंय अपनी आँखो में ।

 

सदियों पहले तुमनें बेचा था,

स्वंय को,

मेरे हाथो,

ताकि बची रह सके,

तुम्हारी आने वाली पीढ़ी ।

पीढ़ी - दर - पीढ़ी,

न जाने कब से,

यही चलता आया है ।

 

ढूँढ रहे हो युगों से,

तुम मुझे,

कि,

अगर मैं मिल जाऊं,

तो अपना मूल्य,

वापस कर सको मुझे.

पा सको,

अपनी मुक्ति,

मुझसे ।

 

अब तक तो तुम,

भूल भी चुके हो,

कि बिके हुये हो

तुम ।

कैसे ढूँढोगे अपनी,

मुक्ति का मार्ग ?

 

मुझे पता है,

सबकुछ पता है ।

पर,

नहीं बता सकता मैं ।

 

युगों युगों से,

ढूँढ रहा हूँ,

मैं भी,

अपनी मुक्ति का मार्ग ।

शायद मैं तुम्हारा ईश्वर हूँ,

या तुम मेरे I

 

 

(आज उड़न तश्तरी पर आदरणीय समीर लाल जी की पोस्ट पढी "कैसा ये कहर!" । सोचा क्यों न मैं भी विंडोज़ लाईव राइटर पर लिखने का प्रयास करुं। वाकई में ब्लाग लेखन के लिये यह बहुत हीं मजेदार और सुविधाजनक औजार है। उन्हीं के शब्दो में भूल चूक लेनी देनी।)

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

रे मानव कब तक तू निज को अहं की बलि चढ़ायेगा




कर दो बन्द मुख द्वंद का,
अब सहा नहीं जाता।
थक गया हूँ,
चूर - चूर हो गया हूँ,
अब रहा नहीं जाता।


भागता रहा वर्षो तक,
इस काली रेखा के पीछे,
जब आँख खुली मेरी,
बचे थे हाथों में मेरे,
चंद रेत के कण।


निशाचर बना,
पिचाश बना,
अपनी अग्नि से,
सबको जलाया,
मानवता कराह उठी।


मैं खुश हुआ,
इसलिये कि,
रक्त बह गया है,
आग जल गया है।


पर मिला क्या मुझे,
आज स्वंय इस आग में,
जल रहा हूँ।


शपथ लेता हूँ मैं,
अब युद्ध न होने दूँगा,
शपथ लेता हूँ मैं,
निज रक्त का कण - कण बहा दूँगा।


अब झुक सकता नहीं,
अब रुक सकता नहीं,
विश्वास नया जग गया,
उमंग नया भर गया।


जगह नहीं हृदय में,
द्वेष का द्वंद का,
कलह का,
दुर्गन्ध का।


विचार नया रचित हुआ,
पर्ण नया पल्लवित हुआ
कुविचार अब समाज का,
क्षणों में विघटित हुआ।


समता का बीज बो,
विकास की ओर बढे़,
भुजाओं में शक्ति है,
सौंदर्यमय सृष्टि रचे।


रे मानव कब नवगीत तू गायेगा,
रे मानव कब तक तू निज को ,
अहं की बलि चढ़ायेगा।


(२००१)



गुरुवार, 20 अगस्त 2009

परिवर्तन














रोका था,
तुमनें मुझे

जब मैनें,
कोशिश की थी,
रोने की

कहा था तुमनें,
मत बर्बाद करो,
इन आँसुओ को,
मेरे लिये

बचाकर भी नहीं,
रख पाया था,
मैनें इन्हें

खर्च कर दिये थे,
सारे के सारे

अब,
जबकी तुम नहीं हो,
नहीं भींग पाती है,
मेरी आखें

बहुत ,
कोशिश करने के,
बाद भी




(चित्र साभार- अरुण कुमार)



मंगलवार, 18 अगस्त 2009

मैनें उसको देखा पथ पर







मैनें उसको देखा पथ पर,
लुढ़का पड़ा था नाली पर,
कपड़े थे उसके तितर-बितर,
पर..............................


ध्यान न गया किसी का उसपर,
कवियों की कलमें टूट गयी पर,
रंग डाले सारे पन्ने पर,
पर.......................


नजर न डाली किसी ने उसपर,
पड़ा रहा उसी भाँति वह पथ पर,
उसकी हालत थी अब बदतर,
पर...............................


झपट पड़ा कुत्ता भी उसपर,
ले गया आधा वह भी बांटकर,
शांत रहा वह आधे पेट का आधा भरकर,
पर............................................


अपनी गुदड़ी में घुसकर,
रात बितायी ठिठुर - ठिठुर कर,
सुबह चला फिर अपने पथ पर,
पर................................


(२९ दिसम्बर १९९९)


(चित्र साभार- गूगल सर्च)


रविवार, 16 अगस्त 2009

भारत प्रण



















शांति का अभिलाषी हूँ,
मैं इसके लिये मर सकता हूँ
है शूल बिछे राहों में ,
फूल समझ चल सकता हूँ


तुम बोओगे बीज प्रेम का,
तन के पसीने से सिंचेगे
जो कसमे खायी है हमनें,
मर कर भी उसे निभायेंगे


उस चन्द्र को देखो चल रहा,
गहरे कलंक को लिये हुये
उसकी तरह बनना सीखा है,
है रोशनी उसकी सब के लिये


धिक्कार है उस तन को ,
जो हो न सके जन गण के लिये
धिक्कार है उस नियम को,
जो कर न सके सम सबके लिये


अधिकार न जबतक सम होगा,
यह युद्ध न तब तक कम होगा
अधिकार है सबका एक समान,
रहे इसका सदा ध्यान


उँच नीच का भेद मिटाकर,
छोटे को भी गले लगाकर,
धन का लालच छोड़ कर देखो,
मानवता के मंत्र को सीखो


आन्नद है इसमें इतना,
क्या कह पाओगे कितना
जीवन के चक्के में घिस-पिस कर,
रोता है मानव सुबक सुबक कर


पल भर में क्या हो जायेगा,
नहीं जान इसे कोई पायेगा,
इस पथ पर रोड़े आयेगे,
कांटे पैरो में चुभ- चुभ जायेगे


ललकार रहा हिमालय हमको,
चढना है इसके शिख पर
वर्फिली आँधी आयेगी,
पैर कभी फिसल जायेगा


पर हमको न रुकना है,
मृत्यु से भी न डरना है
जगी है आशा सबके मन में,
साकार करने है सारे सपने


आओ हम सब प्रण ले,
भेद - भाव मिटा लें,
जीवन है छोटी सी,
इसको सफल बना लें


एक नया आलोक फैलाना है,
सबको अपना संदेश सुनाना है,
हम सब को हीं तो मिलकर,
धरती को स्वर्ग बनाना है


(२५ नवम्बर १९९९)


गुरुवार, 13 अगस्त 2009

बलिदान

















मातृभूमि के चरणों में, चाहिये एक बलिदान,
वह इंसान इंसान क्या जो दे न सके बलिदान



हे ईश्वर दे वरदान, कर सकूं कुछ कार्य महान,
चाहता हूँ भारत को बनाना हर क्षेत्र में महान



दे दिया अपना बलिदान, जिन आजादी के वीरो ने,
तेरे लिये दिया हे माता अपना शीश उन अहीरो ने



आजाद भगत खुदीराम बाँध लाल सेहरा सर पे,
अर्पण कर दिया स्वंय को देशरूपी कंगूरे की नींव में



मरते गये परन्तु दस दस को मारते गये,
मरते मरते भी तुझको सलाम करते गये



सौंप गये आजाद भारत को सच्चे मन से हमें,
करनी है तेरी रक्षा प्राण देकर भी हमें



तेरे सम्मान के लिये सरहद पर मर रहा हिन्दुस्तानी,
बूंद बूंद रक्त बहाकर उत्सर्ग करता है अपनी जवानी



बन्धु बान्धवों माता पिता को छोड़कर,
न्योछावर करने आ गया रिश्ता घर से तोड़कर



चल पड़ा हूँ इस राह पर, अब न रुकूँगा कभी,
महाप्रलय क्यों न आ जाये मिलकर रक्षा करेगे तेरी हम सभी




(१ जुलाई १९९९)




रविवार, 9 अगस्त 2009

मन


















ये मन बड़ा मतवाला है,
न होश में आनेवाला है
कभी इस डगर, कभी उस डगर,
रमता रहता है नगर - नगर


गाँवो की गलियों में दौड़े,
जैसे मस्त पवन मे भ्रमरें
फूल - फूल पर फिरता - फिरता,
मधुरस का पान करता


मन का दर्द रखो न मन में,
एक दिन विष बन जायेगा
मन की बात निकालो मन से,
कुछ कष्ट दूर हो जायेगा


मन क्या सोचे, मन क्या कर ले,
मन बहका ले, मन बहला ले
मन चाहे तो मीत बना ले ,
छोटे - बड़ो का भेद मिटा ले


मन , मन को मोह ले,
मन , मन ही रो ले
मन तड़पा दे , मन हर्षा दे ,
मन जीवन के गीत सुना दे


मन के बस में न होना रे,
मन को बस में कर लेना रे
मन, मष्तिस्क में जलता रहता है,
तब शिव का भष्म बनता है




(14 नवम्बर 1999)


बुधवार, 5 अगस्त 2009

जीवन-मृत्यु





एक जिज्ञासा,
मन में उभरी,
जीवन क्या है ?
प्रत्युत्तर मिला-
मृत्यु की ओर अग्रसर,
एक अविराम पथ ।

परन्तु,
समय ,
न चाहते हुए भी,
उस यात्री को,
आगे बढ़ने के लिये,
विवश करता है ।

कितना विवश ?
कितना विक्षिप्त ?
कितना क्षुब्ध ?
है मानव,
है मानव का यह समाज ।

डरता है मनुष्य,
मृत्यु के वरण से,
मृत्यु कठोर है,
असुन्दर है ।
पर,
यही तो शाश्वत है ।

मृत्यु जीवन का अन्त नहीं,
जीवन की है यह पूर्णता ।

जीवन मृत्यु के द्वन्द में,
किसने किसको पछाड़ा,
एक प्रश्न,
जीवन या मृत्यु,
या फिर समय ?


गुरुवार, 30 जुलाई 2009

मेरी डायरी के कुछ पन्ने



शनिवार को मैं गांव से दरभंगा आ गया यहां आकर पता चला कि आसनसोल से मेरा मनीआर्डर आया हुआ है मैं डाकघर जाने ही वाला था कि याद आया, आज तो रविवार है अतः डाकघर बन्द होगा दूसरे दिन सुबह दस बजे डाकघर गया

टेबल पर बैठे एक सज्जन पत्र छांट रहे थे
उनसे
मैंने कहा, " कल मेरा मनिआर्डर आया था और मैं छात्रावास मे नहीं था"
"कतऽ रहई छी ?" ( कहां रहते हैं आप?) उनहोंने मैथिली में पूछा
मैंने कहा, "आइन्सटीन छात्रावास में"
"नाम की भेल ?,"(नाम क्या है?) पत्र छांटते हुए उन्होनें पूछा
"चन्दन कुमार झा"मैंने कहा

उन्होंने सामने कुछ दूर पर खड़े एक आदमी की ओर दिखाते हुए कहा-

"वो उन्हे देख रहे है न, जो टीका- चन्दन किये हुये है, उनके पास जाइये और अपना नाम कहियेगा तो कल आपको आपका मनिआर्डर मिल जायेगा "

तब मुझे पता चला की मेरा मनिआर्डर डिपोजिट में रख दिया गया है मैं समझ गया कि अब मुझे परेशान होना ही पड़ेगा तभी चन्दन-टीकाधारी पुरुष अपने स्थान से दूसरे स्थान पर चले गये. मैं उन्हें पीछे से देख ही रहा था, और जल्दी से उनके पास गया वे कुर्सी पर बैठ गये, सामने टेबल पर काफी सामान बिखरा हुआ था वैसे वे उतने व्यस्त नहीं लग रहे थे

मैनें
उनसे कहा, "मेरा नाम चन्दन कुमार झा है, कल मेरा मनिआर्डर आया था, उस समय मैं हास्टल में नहीं था, सो पता चला है कि उसे डिपोजिट में रख दिया गया है, अतः क्या मुझे मेरा मनीआर्डर मिल सकता है "

"अवश्य मिलेगा", उन्होंने पूछा,"आपको किसने भेजा है ?"

मैनें सामने दिखलाते हुए कहा, "वो जो किनारे से बैठे हुये है, लाल रंग का कुर्ता पहने हुए "

उन्होंने अपना सिर घुमा लिया और अपने कार्य में व्यस्त हो गये
मैं थोड़ा झुंझुला उठा

मैनें पुनः प्रश्न किया, "क्या मुझे कल फिर आना पड़ेगा ?"
उत्तर स्पष्ट था, "आप क्यों आएगे , डाकिया पहुचां देगा"
मैनें पूछा, "क्या आज नहीं मिल सकता ?"
उत्तर आया,"एकदम नहीं"

मैं कुछ परेशान सा हो गया, पर क्या कर सकता था, अतः वापस छात्रावास लौट आयादिन के १२ बज रहे थेमैनें सोचा शायद डाकिया मनिआर्डर लेकर आज ही आ जाये अतः समाचार पत्र लेकर छत पर जाने वाली सीढी पर बैठ गया, जहां से सामने गुजरने वाली सड़क पर सीधी नजर रखी जा सके बहुत देर तक वहां बैठा रहा, अन्त में थककर अपने कमरे में आ गया कमरे की खिड़की से भी सामने वाली सड़क नजर आती थी अतः खिड़की से भी अवलोकन का कार्यक्रम चलता रहा कि अचानक डाकिया आता दिखाइ पड़ा मैं भागकर नीचे गया, पर सारी आशा निराशा में बदल गयी डाकिया ने मेरा मनिआर्डर नहीं लाया था

चुपचाप खाना खाने चला गया

(२४ सितम्बर२००१)


बुधवार, 29 जुलाई 2009

भूत, भविष्य और वर्तमान





जब मैनें अपने,
भूत को रोता हुआ,
और भविष्य को लापता पाया,
तब मैनें अपने वर्तमान को जगाया ।

काफी ना-नुकुर के बाद वह तो उठा,
पर तब तक तीनों,
गुत्थम-गुत्थ हो चुके थे ।

एक ने दूसरे को नीचा दिखलाया,
दूसरे ने स्वयं को सबसे बड़ा बतलाया,
तीसरा,
एक उँचे टीले पर खड़ा हो गया,
और चिल्लाने लगा,
मैं किसी की भी नहीं सुनुँगा,
देख लो तुम लोग,
मैं सबसे बड़ा हूँ ।

जब तीनो लड़ते-लड़ते थक गये,
तो मेरे पास आये,
फैसला करवाने ।

अपने छ्ह हाथों से,
तीनों ने मेरा गला दबाया,
कहा,
जल्दी से बताओ,
कौन है बड़ा हममें ।

किसी तरह गला छुड़ाकर,
मैं भाग खड़ा हुआ ।

काफी देर भागने के बाद,
पीछे मुड़कर जब मैनें देखा,
जहाँ से मैं भागा था,
अपने आप को वही खड़ा पाया ।

तब तक,
वर्तमान सो चुका था,
भविष्य लापता था,
और भूत रो रहा था ।

मैं पुनःवर्तमान को,
जगाने की तैयारी में जुट गया ।



शनिवार, 25 जुलाई 2009

मंजिल की तलाश


आज मैं अपनी जिन्दगी की बहुत बड़ी खुशी आप लोगों के साथ बांटना चाहता हूं 23 जुलाई को मेरा चयन IOCL (Indian Oil Corporation Limited) में हो गया ऐसा बन्धु-बान्धवों और आप सभी लोगों के आशिर्वाद के कारण हो सका मैं अभी चतुर्थ वर्ष (safety and fire engineering) का छात्र हूं अपने सभी मित्रों के लिये मैं ईश्वर से सफलता की कामना करता हूं और उनके लिये दो पंक्तियां................



ऐ मित्र !

क्यों भटक रहे हो,

मंजिल की तलाश में


मंजिल ?

मंजिल तो तुम्हारे सामने है,

फिर क्यों भटक रहे हो तलाश में


कायरता त्यागो,

लकीर के फ़कीर मत बने रहो,

जगाओ अपने पुरूषत्व को,

सारे पंच तत्व है तुममें


बस !

एक बार देखो कोशिश करके,

अम्बर झुक जायेगा ,

कदमों में तुम्हारे


तुम्हीं हो नभ के तारे,

तुम्हीं हो वसुंधरा के पुत्र


गर्व करेगा सारा जनमानस,

ऐ भारत के धीर वीर


(22 जून 1999)

-चन्दन कुमार झा

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

जीवन निर्झर



क्यों मौन खड़े हो बतलाओ ?
क्यों रुके हुये हो समझाओ ?


क्या सुर्य - पवन - जल रुकते भय से ?

जीवन निर्झर सरिता स्वरूप,
यह बहता जल है स्वच्छ सरल


आरम्भ करो नूतन-नवीन,
रुकना कैसा तुम वीर सबल

तोड़ो कारा, तोड़ो प्रस्तर,
प्रारम्भ तुम्हारा उज्जवल है


माना बाधायें कम भी नहीं,
पर है असीम उत्साह तेरा

तुम करो प्रहार भीष्ण बल से,
तब द्वार खुलेंगे जीवन के


संगीत सुधा अविरल बहता,
है जीवन यह निश्चय चलता

जीवन निर्झर सरिता स्वरूप,
यह बहता जल है स्वच्छ सरल



मंगलवार, 30 जून 2009

तीन बन्दर

कल मेरे गांव में कुछ बन्दर आये थे
कुछ ने रंग बिरंगी टोपियां पहन रखी थी,
कुछ ने चमकदार घड़िया,
और कुछ पहने हुए थे
काफी चुस्त पतलून


अपने स्वभाव के विपरीत
वे बहुत शांत दिख रहे थे

मैंने उन तीन ऐतिहासिक बन्दरों को
पहचानने की बहुत कोशिश की,
क्योंकी भविष्यवाणी हुई थी ,
वे तीन बन्दर फिर से अवतार लेंगे


झुंड में एक ऐसा बन्दर भी था,
जो थोड़ा अलग दिख रहा था

पूछ ताछ के बाद पता चला कि यह बन्दर,
गूंगा, बहरा और अन्धा है

पर आश्चर्य की बात,
यह अपाहिज बन्दर उस दल का नेता था


जब मैंने कोशिश की,
इस बन्दर के पास जाने की,
तीन बन्दरो ने मेरा रास्ता रोक लिया


पहले ने दूसरे को इशारा किया
दूसरे ने मेरे दोनों गालो पर
दो जोड़दार थप्पर जड़ दिये

अपना दूसरा गाल बढाने का
मौका तक नहीं दिया

तीसरे ने अपने चमकदार,
दूध की तरह सफ़ेद दांत दिखला दिये

शायद किसी मंहगे टूथपेस्ट से ,
मुंह धोता होगा वह


ये तीन बन्दर,
उस अपाहिज बन्दर के अंगरक्षक थे

और शायद तीन अवतार भी


रविवार, 10 मई 2009

रेगिस्तान

देखा हुआ सच,
किनारे से किनारे तक,
दूर तक फ़ैला हुआ

रेत की तरह,
शुष्क
तपती धूप में जलता हुआ

किसे पता है यह सच,
जो किसी को नही पता

मुझे पता है
मुझे मालूम है

दूर तक जाना है मुझे,
इन प्रतिबिंबो पर पैर रखते हुए
क्या टिके रहेगे मेरे पांव,
इन आधारो पर

क्योकि फ़ैल रहा है यह,
रेगिस्तान

बुधवार, 6 मई 2009

कर्म का महत्व

रुको नहीं, थको नहीं,
रुकना नहीं कर्म है,
थकना नहीं धर्म है

चलते रहो चलते रहो,
चलना हीं तो कर्म है



रवि रुक जाये अगर,
प्रकृति में हो जाये प्रलय

चाहते हो अगर जीतना तो,
समझो कर्म के महत्व को



कर्म हीं है जिन्दगी,
मानवता कर्म है,
मातृत्व हीं तो कर्म है,
भक्तित्व हीं तो कर्म है



कर्म से डरो नहीं,
कर्म से भागो नहीं,
कर्म तुम्हें पहुँचायेगा,
परम लक्ष्य की सीमा तक



सत्य है असत्य है,
सत्य को चुन लो तुम,
सत्य को थामे रहो,
कर्म हीं पहुँचायेगा तुम्हें,
सत्य की राह पर



अराधना हीं कर्म है,
साधना हीं कर्म है,
पवित्र मन, सत्य वचन,
सच्ची श्रद्धा,हृदय से निष्ठा,
कर्म का मूलमंत्र है


कर्म देश भक्ति है,
कर्म हीं तो शक्ति है,
कर्म का भविष्य है,
निश्वार्थ भाव से,
कर्म करो,कर्म करो


(20 जुलाई 1999)




मैं भूल चुका हूँ

जब मैं,
पटना में रहता था,
तब मुझे,
रोटीयाँ स्वंय ही बनानी पड़ती थी,
ये रोटीयाँ,
कभी गोल बन जाती थी,
और कभी टेढी-मेढी,
पर मुझे पैसे नहीं देने पड़ते थे,
अब मुझे,
रोटीयाँ नहीं बनानी पड़ती है,
पर मुझे पैसे देने पड़ते है.
चाहे रोटीयाँ गोल हो,
चाहे टेढी,
मैं पैसे चुकाता हूँ,
क्योंकी कुछ बाते पीछे रह गयी है।
अब मैं,
रोटीयाँ बनाना भूल चुका हूँ,
और पता नहीं,
और क्या क्या भूलने वाला हूँ।

रविवार, 3 मई 2009

एक सैनिक का आत्म कथ्य


मेरी आँखो मे बिजलीयाँ कौंध जाती है

आंधीयाँ जब जब तूफान बन आती है।

तूफान जब जब विनाश बन आता है,
मेरे बाजुओं मे अपार शक्ति भर जाता है।






मेरा पग पल पल मृत्यु की तरफ बढता जा रहा है,
अब तो रक्त बहाने का समय भी आता जा रहा है।




इस मिट्टी को रक्त से लाल कर दूंगा,

दुश्मनों के लिये रक्त का समुद्र खडा कर दूंगा।

वह शक्ति है भुजाओं में जो पहाड़ो को भी धूल बना दे।


वह विश्वास है हृदय में जो पत्थरों को भी मोम कर दे।




है कोई मझधार नहीं, जो मुझको डुबो सके।

है कोइ दीवार नहीं, जो मुझको रोक सके।

है कोई ऊँचाई नहीं, जिसे मैं छू न सकूं।

है कोई गहराई नहीं, जिसमें मैं डूब सकूं।




तनहाईयों में जीकर जीतने की चाहत है मुझमें,
गोलियां पीठ पर नहीं,
ीने पर खाकर मरने की आदत है मुझमें।

दुश्मनों की गोलियों को प्रेमी समझ सीने से लगाता हूं,
भूख को प्रेम विरह समझ अपनाता हूं,
बन्दूकें मेरे हाथों में, उसके हाथ होने का एहसास दिलाता है,
इससे निकली गोलियाँ, हृदय को सुकून दिलाता है।




प्रलय में पले हुए है, विनाश में बढे हुए है।

सुबह हो या शाम हो, शीत हो या घाम हो।

मिट्टी ने विकास किया, अग्नि ने प्रकाश दिया।

बाधाओं ने हीं हमें बढने का एहसास दिया।



सर
पे कफ़न बांध कली की तरह ईठलाता हूँ,
जब मरता हूँ तो फूल की तरह खिल जाता हूँ।

जब मेरे शरीर के टुकड़े धरती पर फैल जाते है,
स्वंय को मां के चरणों में न्योछावर पाता हूँ।




मृत्यु के समीप हूँ, घायल हूँ मृत हूँ।

पैर रुक गये है मेरे हाथ झुक गये है मेरे।

रुक गयी क्यों हो मेरे धर की गति।

एक इच्छा हॄदय में है प्राप्त करुं वीरगति।




हिम की बरसात हो या रेत का तूफान हो।

काटों की चुभन हो या विषों का उफान हो।

विधाता से एक यही प्रार्थना है,
तब भी मेरे मुख पर अविचल मुस्कन हो।





(31 जुलाई 2000)


मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

क्योंकि मैं मजदूर हूँ

मैं मजदूर हूँ।

देखो न,
मेरे हाथ घिसे-पिटे है।

कहते है भाग्यवादी,
हस्तरेखायें बनाती है भाग्य को।
मेरे भाग्य कौन बनायेगा,
देखो न मिट गयी है रेखायें,
हाथों के ही रगड़ से।

मुझको कौन शराब देगा,
अपने ही दुख को,
शराब समझ पी लेता हूँ।

नशे में हूँ इस कदर,
न होश है इधर का,
न होश है उधर का।

कौन मुझको रंग देगा ?
अपने ही रक्त से,
सबको मैं रंगमय कर दूं।

केश मेरे उलझे हुए है,
कौन इसे सँवारेगा,
कब्र में पड़ हूँ मैं,
कौन मुझे नवजीवन देगा,
अपने ही स्वेदकणों से,
सृष्टी रचता हूँ मैं।

मित्र सच्चा कौन है मेरा,
साथ दिया सबने सुख में,
पुर्णिमा गयी,
देखो न अमावस्या आ गयी,
अब सबने विदा लिया।

कहते है बहुत लोग,
मजदूरों की दशा कुछ हुइ ठीक,
क्या खाख दशा हुइ ठीक,
मुझको पढाने के लिये,
उपक्रम रचते है,
"अ-आ" मैंने सीख लिया,
क्या हो गयी पढाई ?

मुझको इतना गड़ा दिया,
इस दलदल में,
कि निकलते निकलते,
वर्षों निकल जायेगें।

कौन मुझे निकालेगा ?
कौन मुझे निकालेगा ?
क्योंकि मै मजदूर हूँ ।

(19 दिसम्बर 1999)

 

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

अपराजेय हो जाओगे

देखो,
दूब को।

कुचली जाती है,
रौंदी जाती है,
पर फिर भी बढती है,
आगे चढती है।
रेंग-रेंग कर,
मिट्टी को अपनी भुजाओ में,
देखो, कैसे जकड़ती है।

कड़ी दुपहरी सिखलाती इसको,
सहो सुर्य के प्रचण्ड धूप को।
फिर झूम-झूम कर वर्षा आती है,
इसको जल से तृप्त करती।
रग-रग में दौड़ जाता है,
जीवन द्रव्य।
होता है फिर,
विद्युत संचार।

फिर हुंकार भरती है,
अपरिमित आशाओं के साथ,
आगे बढते जाती है।

देखो,
निर्मम खुर के तले,
कैसे कुचली जाती है।
सहती सब कुछ,
भार टनों का,
जल जाती है,
सड़ जाती है,
जड़ उखाड़ फेकी जाती है।
फिर भी यह न थकती है,
जहां जाती है,
वहीं बढती है
देखो कभी न रुकती है।
हरी रंग है, हरी दिशायें,
अपराजेय है, दूब हरी है।

देखो,
जब चढती है दूब,
ईश्वर के चरणों में,
परम पवित्र कहलाती है।
बन सकते हो, बनो दूब तुम,
अगर दूब बन जाओगे,
अपराजेय हो जाओगे। 


(25 जनवरी 2000)

रविवार, 19 अप्रैल 2009

हे प्रभु ! विनय करुँ मैं तुझसे







हे प्रभु ! विनय करुँ मैं तुझसे।

हे प्रभु ! देना मुझको बुद्धि,
कर सके हम आत्म शुद्धी,
और देना ज्ञान समान,
हो जाये सत्य का ज्ञान।

कुछ भी नहीं हूँ तेरे सामने,
व्यथित हो कर आया हूँ कहने,
हो जाऊँ तेरी पद धूल,
नहीं चाहता जीवन में फूल।

ना जानूँ मैं रुप तेरा,
और कहां है तेरा बसेरा,
नहीं करूंगा गुणों का वर्णन,
मेरा सबकुछ तुझको अर्पण।

कोई कहता तू है मन्दिर में,
कोई कहता तू है मस्जिद में,
क्षुद्र हूँ, पड़ा हूं दुविधा में,
हे प्रभु ! लेना हमें शरण में।

हे प्रभु ! तू है सबका रक्षक,
तू हीं है जीवन उद्धारक,
ले ले मुझको अपनी शरण में,
विनय करुं मैं तेरी मन में।

कर सकूं सबका सम्मान,
दिला सकूं मैं सबको मान,
कर सकूं गरीबो पर दया,
नहीं हो अपनो से माया।

देना मुझको इतनी शक्ति,
कर सकूं मैं तेरी भक्ति,
भय न हो मृत्यु से कभी,
डरते हैं इससे सभी।

हे प्रभू ! कर दे मन को उज्ज्वल,
भरा पड़ा है इसमें हलाहल,
हे प्रभु ! कर दे इसको अमृत,
देख पड़ा हूँ पाप में लिप्त।

न देना मुझको तू सिद्धी ,
न देना मुझको तू निधी,
देना मुझको शील की शिक्षा,
मागूँ तुझसे इतनी ही भिक्षा।

मोह न हो मुझको कभी धन का,
मोह न हो मुझको कभी तन का,
हे प्रभु ! देना इतनी शक्ती,
मिल जाये मुझको मुक्ती।

हे प्रभु ! और कहूं क्या तुझसे,
लेना मुझको अपनी शरण में,
विनय करूं मैं तेरी मन में,
हे प्रभु ! विनय करूं मैं तुझसे।






बुधवार, 15 अप्रैल 2009

प्रश्न और अर्थ

कुसुम को किसने कहा खिलो,
पवन को किसने कहा चलो,
अग्नि को किसने कहा जलो।


जीवन में निराश क्यों,
मृत्यु का उपहास क्यों,
प्रेम की तलाश क्यों ।


समय क्यों रुकता नहीं,
अहं क्यों झुकता नहीं,
विचार क्यों रुकता नहीं।


भक्ति में इच्छा कैसी,
शक्ती की समिक्षा कैसी,
विश्वास की परिक्षा कैसी।


रंग क्यों अनेक है,
जीवन क्यों एक है।


प्रश्न का हल नहीं,
अर्थ है सभी वही।

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

उठ मानव समय आ गया


उठ मानव समय आ गया
कब तक रहेगा सोता तू ?


उठ अब।

तोड़ पत्थर, सर नहीं।
तोड़ बन्धन, मन नहीं।

अशांत बैठा बहुत दिनों तक,
अब बजा डंका शांति का।
अंधकार फैला है चारो ओर,
दीप जला, प्रकाश ला।

कहां से लायेगा तू दीप,
कहां मिलेगी बाती तेल।
ये शरीर ही दीपक है,
मन है इसकी बाती,
हृदय है तेल,
जला दे दीपक।

बुझा न सके इसे,
कोइ फिर कभी।

कहां कहां भटकेगा तू?
मत भटक, यहीं अटक।

जला दे उस जड़ को,
जो फल न दे सके।
तोड़ दे उन हाथो को,
जो जल न दे सके।
फोड़ दे उन आंखो को,
जो किसी का सुख न देख सके।

विष भर दे उनमें,
जो सताये जाते है।
चण्डी बना दे उनको ,
जो जलाये जाते है।

काट फेंक उस हृदय को,
जो दया न दे सके।
बन्द कर दे उन कानों को,
जो किसी की सुन न सके।

तुझे अब खांसना नहीं,
हुँकार भरना है।
तुझे अब डरना नहीं,
काल बनना है।

उनके लिये,
जो चूसते रक्त गरीबों का।

उस रक्त पिपासु के,
पंख काट दे,
आंखे फोर दे।

दीमक लगा उन जड़ो में,
जो तुझसे उखड़ न सके।

उठ मानव समय आ गया। 


(30 नवम्बर 1999)

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

कारण

ईश्वर के द्वारा बनायी गयी सबसे पहली दुनिया सभी दृष्टीकोणों से सम्पूर्ण थी। परन्तु पता नहीं क्यों यह दुनिया कुछ अधिक दिन तक चल नहीं सकी और नष्ट हो गयी ।


बहुत सोच-विचार के पश्चात ईश्वर ने पुनः एक नई दुनिया बनायी और इस बार उसने इस दुनिया में दुःख, दर्द, कष्ट, दया, प्रेम, घृणा, पश्चाताप और अनेकों कारण डाल दिये ।
और यह दुनिया आज तक चल रही है ।

गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

सारा आकाश हमारा है





मैं स्वच्छंद गगन का पंछी
सारा आकाश हमारा है
नये पंख से नये स्वरो से
प्रकृति ने हमें संवारा है
सारा आकाश हमारा है।

उस नये खगों को देखो तुम
मचल मचल सर पटक पटक
नये पंख फैला उड़ने को उत्सुक
उसने भी गर्व से पुकारा है
सारा आकाश हमारा है।

सोने के पिंजरे में बैठा
जो लेता रस का आनन्द भरपूर
वह भी पंखो को फैलाता
पर पिंजरा ही उसका किनारा है
कैसे कह सकता
सारा आकाश हमारा है।

पर उस स्वतन्त्र पंछी से पूछो
जो उड़ता चारो किनारा है
पिंजरे को ठुकराता है
भूखा है गर्वित हो कहता
सारा आकाश हमारा है।

मैं स्वच्छंद गगन का पंछी
सारा आकाश हमारा है
पुनि पुनि कह्ता स्वतन्त्रा अभिलाषी

सारा आकाश हमारा है
सारा आकाश हमारा है।




 (22 दिसम्बर 1999)

सोमवार, 30 मार्च 2009

मेरी अभिलाषा

अभिलाषा है ऊपर उठने की मुझे
पर इतना नहीं कि झुक न सकूं
इतना न झुकूं कि उठ न सकूं।

उठने के नशे में कुचल दूं
उस लता को
जो चाहती है उपर उठना
अपना विकास करना
दुख दर्द कष्ट
किसी का बांटना।

ऐ मेरे ईश्वर
मैं उस लता को भी उपर
उठने दे सकूं
उसे भी अपना विकास
करने दे सकूं।

पतझर गर्मी वर्षा
है मेरे जीवन में भरे हुए
राह राह पर कांटे चुभते हैं
कांटे चुभते हैं ?
चुभने दो उन्हें।

चुभन है ज़िन्दगी चुभन को झेलो
अपने संग सबको विकास के पथ पर ले लो।

अभिलाषा है कि सबको संग ले कर चलूं
इस पथ पर कभी न डरूं।

अभिलाषा है उपर उठने की मुझे
पर इतना नहीं कि झुक न सकूं
इतना न झुकूं कि उठ न सकूं।

अभिलाषा है उपर उठने की मुझे। 


(16 सितम्बर 1999) 

गुरुवार, 26 मार्च 2009

अहं का विसर्जन

नमस्कार !!!!!!!!!!!!!!!
आज एक छोटी सी कहानी सुनाता हूं।

शून्यवादी नागार्जुन जब चीन पहुँचे तो वहाँ के सम्राट ने उनका भव्य स्वागत करने के बाद उनसे कहा: " मैं अहंकार से बुरी तरह पीड़ित हूँ, कृप्या कुछ करें।नागार्जुन ने कहा:"आधी रात गये अतिथि गृह में आना और हां अकेले मत आना अहंकार को भी साथ लिये आना" . नियम समयपर सम्राट अतिथि गृह के द्वार पर खड़ा था। नागार्जुन बोले, "अकेले आये हो, अहंकार को साथ नहीं लाये ?। सम्राट ने कहा, "वह तो मेरे भीतर बैठा है"। नागर्जुन बोले, "ऐसा ? तब उसे खोजो भीतर किस कोने में छिपा बैठा है । सम्राट को लगा यह आदमी तो पागल है, फिर भी वह चुप होकर बैठा गया। दो घड़ी बाद नागार्जुन ने पूछा, "मिला ?" । "कोशिश कर रहा हूं", सम्राट ने कहा । प्रत्यूंषवेला हो रही थी-एकाएक सम्राट जोर से हँसा- बोला "अब मैं समझ गया। आपका शून्यवाद " मैंपन" की ठसक से छुटकारे का दूसरा नाम है ।




साभार: दैनिक हिन्दुस्तान

शुक्रवार, 20 मार्च 2009